नई दिल्ली
भारतीय जनता पार्टी पिछले कई चुनावों से किसी भी मुस्लिम कैंडिडेट को अपना उम्मीदवार नहीं बना रही है. पर इस बार के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आरजेडी सहित कांग्रेस जैसी पार्टियों ने भी मुस्लिम कैंडिडेट्स से दूरी बनाई है. जिनका मुख्य आधार ही मुस्लिम वोटबैंक रहा है. इस बार दिलचस्प यह है कि जिन सीटों पर मुस्लिम आबादी 40 से 50 प्रतिशत तक है वहां से भी किसी 'सेक्युलर' पार्टी ने मुस्लिम कैंडिडेट को प्रत्याशी बनाने में सावधानी बरती है. तो क्या मान लिया जाए कि ये पार्टियां मुसलमानों का वोट लेना चाहती हैं पर उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी नहीं देना चाहती हैं? या पार्टियां मुस्लिम हितेषी के रूप में आम जनता के सामने नहीं आना चाहती हैं? पर तर्क की कसौटी पर दोनों ही बातें गलत साबित होती हैं. क्योंकि मुस्लिम हितैषी दिखने के लिए चाहे अखिलेश यादव हों या तेजस्वी यादव, कभी भी कोई मौका नहीं छोड़ा है. सवाल उठता है कि तो फिर और कौन से कारण हैं जिसके चलते टिकट बंटवारे में इन पार्टियों ने मुसलमानों की अनदेखी की है.
1- बिहार में आरजेडी-लेफ्ट और कांग्रेस ने मुसलमानों को दिखाया आइना
बिहार में आरजेडी के कोर वोटबैंक यादव और मुस्लिम माने जाते हैं, लेकिन यादव को तो पार्टी ने उनकी आबादी के हिसाब से टिकट दिया है पर मुसलमानों को नहीं. बिहार में 17 से 18 प्रतिशत के करीब यादव और करीब इतना ही मुस्लिम आबादी है. पर 23 सीटों में से करीब 8 सीटों पर यादव उम्मीदवारों का चयन किया गया है जबकि मुसलमानों के लिए केलल 2 सीट ही निकाल सकी पार्टी. मधुबनी सीट से अशरफ अली फातमी को टिकट मिला है जबकि अररिया सीट से शाहनवाज आलम को टिकट मिला है.
आरजेडी अब तक बिहार में चार से पांच सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारती रही है. बेगूसराय सीट आरजेडी ने लेफ्ट को दे दी है, जिसके चलते तनवीर हसन के हाथ से सीट निकल गई है. कांग्रेस ने अपने कोटे की 9 में से दो सीट पर ही मुस्लिम टिकट दिए हैं. सबसे आश्चर्यजनक ये है कि लेफ्ट ने एक भी सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारा है. मुकेश सहनी ने अपनी तीन सीटों में से एक भी सीट पर मुस्लिम को प्रत्याशी नहीं बनाया. इस तरह 40 लोकसभा सीटों में से तीन से चार सीट पर ही मुस्लिम प्रत्याशियों के हाथ जाने की उम्मीद है.
2-उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम 'हितैषी' दलों ने किया किनारा
उत्तर प्रदेश में भी सपा से लेकर बसपा और कांग्रेस तक ने मुस्लिम बहुल लोकसभा सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी को उतारने में संकोच किया है. पश्चिमी यूपी की कई लोकसभा सीटों पर 26 से 50 फीसदी तक मुस्लिम आबादी है. यही कारण है कि 26 लोकसभा सीटों पर मुस्लिम वोटर अहम भूमिका निभाते रहे हैं. पर सपा ने अभी तक सिर्फ चार मुस्लिम प्रत्याशी बनाए हैं जबकि बसपा ने सात मुसलमानों को टिकट दिया है. कांग्रेस ने यूपी की दो सीट पर मुस्लिम कैंडिडेट उतारे हैं.
यूपी के मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, कैराना, संभल, बरेली, बदायूं, गाजीपुर, श्रावस्ती, गोंडा, आजमगढ, फिरोजाबाद, लखनऊ, लखीमपुर खीरी, धौहरारा (शाहाबाद), बागपत, प्रतापगढ़, सीतापुर, देवरिया, डुमरियागंज, सुल्तानपुर, संत कबीर नगर, उन्नाव, रामपुर और सीतापुर लोकसभा पर मुस्लिम समुदाय के नेता चुनाव लड़ते रहे हैं. अगर उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो मुस्लिम नेताओं का सुनहरा इतिहास रहा है. इन सीटों पर कभी न कभी मुस्लिम समुदाय के सांसद रहे हैं. पर 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई भी दल मुस्लिम कैंडिडेट को नहीं उतारना चाहता है.
3-हिंदू हितेषी न सही कम से कम हिंदू विरोधी नजर न आने की चाहत
यूपी और बिहार दोनों जगहों पर मुस्लिम हितैषी दलों की ये मजबूरी है कि वो मुसलमानों का वोट तो लेना चाहते हैं पर उनके साथ दिखना नहीं चाहते हैं. पार्टियों की चाहत है कि उनकी हिंदू हितैषी की छवि न भी बन सके तो कम से कम हिंदू विरोधी कहीं से भी नजर न आएं. यही कारण है कि पूर्णिया जैसी जगह जहां पर करीब 7 लाख मुस्लिम वोटर्स हैं आरजेडी ने एक अति पिछड़ा कैंडिडेट को उम्मीदवार बनाया है. यूपी में कम से कम आधा दर्जन ऐसी सीटें हैं जहां 30 से 40 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं पर समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी सभी ने मुस्लिम कैंडिडेट्स से किनारा कस लिया. मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, बागपत आदि में किसी भी दल का कोई मुस्लिम कैंडिडेट नहीं है.
4- मुसलमानों के बीच से नया नेतृत्व नहीं आ रहा सामने
मुस्लिम जनमानस के साथ एक और मुश्किल सामने आई है. मुस्लिमों में कद्दावर नेतृत्व का अभाव हो गया है. ऐसा नेतृत्व जिसे पार्टियां खुद अपने पास बुलाना चाहे. या ऐसा नेतृत्व जो जिस पार्टी में जाए वहां मुसलमान उस ओर चले जाएं. जाहिर है जब नेता को पार्टी के नाम पर ही वोट मिलना है तो पार्टी की दादागीरी चलेगी ही.पार्टी जिस किसी को खड़ा करेगी मुस्लिम वोट उसे ही मिलेगा. यह अधिकार पार्टियों को खुद मुस्लिम जनता ने ही दिया है. मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और शहाबुद्दीन जैसे नेता माफिया थे पर जिस जिस पार्टी से खड़े होते उसके लिए असेट बन जाते थे. आजम खान में भी कूवत ऐसी थी कि अपने आस पास के जिलों में वोटर्स को प्रभावित कर सकते थे. पर अब मुस्लिम आाबादी से ऐसा नेतृत्व निकल कर नहीं आ रहा है. बिहार में तो अब्दुल गफूर खान मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. समता पार्टी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बाद में गोपालगंज से सांसद भी चुने गए. पर वो केवल मुसलमानों के नेता नहीं थे.
यही कारण है कि असुद्दीन ओवेसी बार-बार कहते हैं देश की सेक्युलर पार्टियों को मुसलमानों का केवल वोट चाहिए. वो उन्हें सत्ता में भागीदार नहीं बनाना चाहती हैं. केवल बीजेपी का डर दिखाकर उनसे वोट लेना चाहती हैं. ओवैसी के कैंडिडेट्स इसी लिए यूपी और बिहार में सेक्युलर पार्टियों के लिए खतरा बन रहे हैं. नए मजबूत नेतृत्व के अभाव का ही नतीजा है कि ओवैसी की पार्टी दिन प्रति दिन मजबूत हो रही है.
5-इंडिया गठबंधन बन जाने से मुसलमानों का वोट छिटकने का डर खत्म
मुस्लिम नेताओं को राजनीतिक दलों में टिकट न मिलने का एक और कारण इंडिया गठबंधन का अस्तित्व में आना भी है. यूपी और बिहार के आंकड़े देखने से पता चलता है कि 2014 तक ठीक ठाक संख्या में मुसलमानों को टिकट मिले हैं. 2019 में भी टिकट दिए गए हैं मुस्लिम कैंडिडेट को. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ,कांग्रेस, आरजेडी, लेफ्ट सभी अलग-अलग चुनाव लड़ते तो जाहिर है कि मुस्लिम उम्मीदवारों को जगह भी मिलती. किसी संसदीय सीट पर जब एक पार्टी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर देता तो दूसरे की भी मजबूरी हो जाती है. क्योंकि पार्टियों को डर होता है कि कोर वोटर्स भी पार्टी की दीवार तोड़कर अपने सहधर्मी उम्मीदवार को वोट करता है. पर इस बार ऐसा नहीं है. मेरठ में बहुजन समाज पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवार नहीं खड़ा किया तो समाजवादी पार्टी पर भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करने का दबाव नहीं बना. इसके अलावा सीट शेयरिंग के चलते भी कई मुस्लिम कैंडिडेट्स के अरमानों पर पानी फिर गया है. बिहार में कई ऐसी सीटें हैं जो लेफ्ट के हिस्से में चली गईं जहां से आरजेडी अपने मुस्लिम उम्मीदवार देता रहा है.
6- जातिगत समीकरण साधने की मजबूरी
मुस्लिम कैंडिडेट्स से दूरी बनाने का एक और महत्वपूर्ण कारण बीजेपी के प्रत्याशियों को हराने के लिए जातिगत समीकरण साधने की मजबूरी भी सामने आ रही है. पश्चिमी यूपी को हम उदाहरण के तौर पर लेते हैं. मेरठ लोकसभा में करीब 37 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं. पर यहां किसी भी राजनीतिक दल ने मुस्लिम कैंडिडेट नहीं खड़ा किया है. इसके पीछे जातिगत समीकरण साधने की बात उभर कर आ रही है. समाजवादी पार्टी ने जहां बीएसपी को काटने के लिए दलित प्रत्याशी को कैंडिडेट बनाया है वहीं बीएसपी ने सवर्ण प्रत्याशी को खड़ाकर बीजेपी से वोट खींचने की कोशिश की है. इसी तरह बिजनौर लोकसभा सीट पर 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं, लेकिन किसी भी दल ने इस बार किसी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है. सपा ने दीपक सैनी, आरएलडी ने चंदन चौहान और बसपा ने चौधरी बिजेंद्र सिंह को कैंडिडेट बनाया है.आरएलडी ने गुर्जर को टिकट दिया है तो बीएसपी ने जाट प्रत्याशी खड़ाकर जाट वोट हासिल करने की जुगत में है. सपा ने पिछड़ी जाति के उम्मीदवार बनाकर अलग जगह बनाने की कोशिश की है. मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट में करीब 34 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं. पर बीजेपी ने संजीव बालियान, सपा ने हरेंद्र मलिक और बसपा ने दारा सिंह प्रजापति को प्रत्याशी बनाया है.यहां भी स्थानीय राजनीति के हिसाब से सपा और बसपा ने अपने जातिगत समीकरण फिट किए हैं. बागपत, बरेली, श्रावस्ती, पीलीभीत आदि में इसी तरह जातिगत समीकरणों को मुस्लिम कैंडिडेट्स पर तरजीह दी गई है.