Home शिक्षा केंद्रीय विद्यालय की प्रार्थना पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ करेगी विचार

केंद्रीय विद्यालय की प्रार्थना पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ करेगी विचार

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नई दिल्ली। केंद्रीय विद्यालय में संस्कृत और हिंदी की प्रार्थना पर सवाल उठाने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ विचार करेगी। सोमवार को दो न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को महत्वपूर्ण मानते हुए बड़ी पीठ के पास भेज दिया। जनहित याचिका में केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना ‘असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय’ तथा ‘दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना’ पर सवाल उठाया गया है। प्रार्थना को एक धर्म को बढ़ावा देने वाला बताते हुए रोक लगाने की मांग की गई है। यह जनहित याचिका मध्य प्रदेश के वकील विनायक शाह ने दाखिल की है। जस्टिस आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका में उठाए गए प्रश्न को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा कि इसमें संविधान के अनुच्छेद 28 (1) की व्याख्या का मुद्दा शामिल है। इस पर संविधान पीठ को सुनवाई करनी चाहिए। केंद्र की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत में होने वाली प्रार्थना धार्मिक शिक्षा देने वाली नहीं है बल्कि अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की बात करती है। यह शाश्वत सत्य है। सिर्फ संस्कृत में होने के कारण उसे धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जब जस्टिस नरीमन ने मेहता की दलीलों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि असतो मा सद्गमय उपनिषद से आया है तो मेहता का जवाब था कि सुप्रीम कोर्ट का ध्येय वाक्य ‘यतो धर्मस्य ततो जय:’ है जिसका अर्थ होता है कि जहां धर्म है वहीं विजय है। लेकिन यह धार्मिक या सांप्रदायिक तो नहीं हो जाता। यह शाश्वत सत्य है। जस्टिस नरीमन ने कहा कि यह उनकी दलील हो सकती है लेकिन मामले पर बड़ी पीठ को विचार करना चाहिए। इसके बाद कोर्ट ने उचित पीठ के गठन के लिए मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष पेश करने का आदेश दिया। कोर्ट ने पिछले वर्ष याचिका पर सरकार को नोटिस जारी किया था। याचिका में कहा गया है कि केंद्रीय विद्यालय में होने वाली हिंदी की प्रार्थना और संस्कृत श्लोक हिंदू धर्म को बढ़ावा देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 28(1) का हवाला देते हुए कहा गया है कि सरकारी खर्च पर चलने वाले शिक्षण संस्थानों में किसी तरह के धार्मिक निर्देश नहीं दिए जा सकते। प्रार्थना से अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों और प्रार्थना व्यवस्था से सहमति नहीं रखने वाले नास्तिक लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है।

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