नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की सफलता में ब्रांड मोदी की मजबूती से क्षेत्रीय दलों की दिक्कतें बढ़ने लगी हैं। आमतौर पर केंद्र सरकार के साथ अच्छे रिश्ते रखने वाले सत्तारुढ़ क्षेत्रीय दल अब भाजपा से खतरा महसूस करने लगे हैं। ऐसे में भाजपा की राष्ट्रव्यापी विस्तार की रणनीति को लेकर क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी दलों के साथ मिलकर खड़े हो सकते हैं। इसकी शुरुआत संसद से हो सकती है, जहां पर सीधे तौर पर मोदी के खिलाफ विपक्ष हमलावर हो सकता है। विपक्ष के एक प्रमुख नेता ने कहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख विपक्षी दल की कमजोर भूमिका से दिक्कतें बढ़ने लगी हैं। दूसरी तरफ भाजपा मोदी को केंद्र में रखकर लगातार आगे बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर के अलावा राज्यों में भी भाजपा की सफलता में मोदी का अहम योगदान है। ऐसे में लड़ाई भाजपा के बजाय सीधे मोदी से लड़नी पड़ रही है। इस नेता ने कहा कि कुछ नेता विपक्षी एकजुटता की कोशिश में लगे हैं, लेकिन जब तक चीजें स्पष्ट नहीं होती तब तक सामने आना ठीक नहीं है। एकजुटता अगर नहीं भी होती है, तो अपनी कमजोरी उजागर नहीं करना चाहिए।
भाजपा के 12 मुख्यमंत्री, कांग्रेस के पास केवल दो राज्य
सबसे बड़ा मोर्चा दो साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव हैं, जिनके लिए विपक्ष के पास बेहद सीमित विकल्प बचे हैं। दूसरी तरफ 12 राज्यों में भाजपा के अपने मुख्यमंत्री हैं, जबकि पांच राज्यों में वह अपने गठबंधन राजग के साथ सरकार में हैं। ऐसे में उसे कोई बड़ी चुनौती मिलती नहीं दिख रही है। कांग्रेस की अपनी दो सरकारें बची है और तीन राज्यों में वह अपने सहयोगियों के साथ सत्ता में है। आठ राज्यों में अन्य दलों की सरकारें काम कर रही हैं। इनमें पंजाब में हाल में सत्ता में आई आम आदमी पार्टी और केरल की वामपंथी गठबंधन की सरकार भी शामिल है।
संसद से करनी होगी शुरुआत
विपक्षी सांसदों का मानना है कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग लड़ाई लड़कर भाजपा से मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संसद से लड़ाई शुरू करनी पड़ेगी। यहां पर विपक्ष के पास प्रभावी नेता है और जब वह एकजुट होकर प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे तो उसका अलग ही संदेश जाएगा। इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ेगा और जनता तक भी आवाज प्रभावी ढंग से पहुंचेगी, लेकिन इसके लिए सबसे बड़े दल को ही पहल करनी होगी।
विपक्ष के पास प्रभावी नेता
संसद में विपक्ष के पास नेताओं की कमी नहीं है। राहुल गांधी और सोनिया गांधी के अलावा, टीआर बालू, अखिलेश यादव, सुदीप बंदोपाध्याय और महुआ मोइत्रा, दयानिधि मारन, फारूक अब्दुल्ला जैसे मुखर नेता लोकसभा में मौजूद हैं। अगले माह हो रहे उप चुनाव के बाद शत्रुघ्न सिन्हा भी लोकसभा में आ सकते हैं। ऐसे में विपक्षी खेमे के मुखर वक्ताओं की संख्या और बढ़ेगी।
बदल रही है तस्वीर
भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका हमेशा से अहम रही है। कुछ मौकों को छोड़कर क्षेत्रीय दलों की सरकारों के केंद्र के साथ रिश्ते भी बेहतर ही रहे हैं। दरअसल राज्य के विकास और केंद्रीय सहायता को लेकर क्षेत्रीय दल आम तौर पर केंद्र में की सत्ता वाली पार्टी के साथ अच्छे रिश्ते रखते हैं, लेकिन अब स्थितियां बदल रही है। भाजपा अपना राष्ट्रीय व्यापक प्रसार कर रही है। अब जबकि कांग्रेस सिमटती जा रही तब उसको क्षेत्रीय दलों से ही लड़ना पड़ रहा है। ऐसे में अधिकांश राज्यों में भाजपा बनाम क्षेत्रीय दल मुकाबला हो रहा है।
केसीआर की मुहिम
भाजपा के खिलाफ हाल में तेलंगाना के मुख्यमंत्री टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव की मुहिम भी इसी का संकेत है। तेलंगाना में भी भाजपा ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सामने भाजपा ही सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आई है। झारखंड और उड़ीसा में भी भाजपा से ही वहां की सरकारों को मुकाबला करना है। पंजाब में भले ही अभी भाजपा कमजोर हो लेकिन वहां पर हाल में सत्ता में आई आम आदमी पार्टी का भविष्य में भाजपा की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।