श्रीनगर
1947 में देश की आजादी के बाद पाकिस्तानी आक्रमण को झेलने वाला शहर…शंकराचार्य मंदिर का शहर…हजरबल मस्जिद का शहर…हिमालय की गोद में बसा भारत का सबसे बड़ा शहर…जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए गर्मियों में राजधानी का काम करने वाला शहर…डल झील और उसके मशहूर शिकारों का शहर…और भी न जाने कितनी चीजें हैं जो पूरी दुनिया में इस शहर की पहचान हैं…आप समझ ही गए होंगे हम बात कर रहे हैं श्रीनगर (Srinagar Lok Sabha Seat 2024) की..लोकसभा चुनाव में मतदान से पहले आज बात जम्मू-कश्मीर की इस सबसे हाईप्रोफाइल सीट की जिसे श्रीनगर के नाम से जाना जाता है.
1967 में अस्तित्व में आई सीट को नेशनल कॉन्फ्रेंस (National Conference) का गढ़ माना जाता है लेकिन मौजूदा चुनाव में हालात कुछ बदले हुए हैं…ऐसे में सवाल ये है कि क्या अब्दुल्ला परिवार (Abdullah family) इस बार भी इस सीट पर अपनी पकड़ कायम रखेगा? क्या महबूबा मुफ्ती (Mehbooba Mufti) नेशनल कॉन्फ्रेंस से ये सीट छीन लेगी या फिर दो बड़े खिलाड़ियों की लड़ाई में किसी तीसरे यानी कांग्रेस का बीजेपी का फायदा हो जाएगा…श्रीनगर के सियासी इतिहास पर विस्तार से बात करेंगे लेकिन पहले ये जान लेते हैं खुद श्रीनगर का इतिहास क्या है?
मुगल शासन के पतन के बाद यहां सिखों का राज हुआ और अंत में 1846 यहां डोगरा राजवंश का शासन काबिज हुआ जो देश की आजादी तक चला. यहां के मशहूर हजरतबल मस्जिद के बारे में ऐसा माना जाता है कि यहां पैग़म्बर मुहम्मद का एक बाल रखा है. स्वतंत्र भारत में भी ये शहर जम्मू-कश्मीर की सियासत का केन्द्र बना रहा. हालांकि 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में इस क्षेत्र की पहचान उग्रवादी हिंसा के केन्द्र के तौर पर हुई लेकिन अब हालात बदल गए हैं.
श्रीनगर लोकसभा सीट भारत की आजादी के बीस साल बाद यानी 1967 में अस्तित्व में आई. पहले चुनाव से अब तक इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें तो ये सीट नेशनल कॉन्फ्रेंस का गढ़ रही है. आगे बढ़ने से पहले इस सीट की डेमोग्राफी भी जान लेते हैं. इस लोकसभा सीट पर 15 विधानसभा सीटें हैं.जिनके नाम हैं- कंगन, गांदरबल, हजरतबल, जदीबल, ईदगाह, खानयार,हब्बा कदल, अमीरा कदल, सोनावर, बटमालू, चाडूरा, बड़गाम, बीरवाह, खान साहब और चरारी शरीफ. इन 15 से 7 सीटों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और 7 पर पीडीपी का कब्जा है. एक सीट पर पीडीएफ काबिज है. इस लोकसभा सीट में पांच जिलों की विधानसभा सीटें शामिल हैं.
1967 में हुए यहां पर पहले चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीजी मोहम्मद ने जीत हासिल की थी. इसके बाद 1971 में निर्दलीय उम्मीदवार के हाथ में ये सीट चली गई. 1977 में एनसी ने फिर वापसी की और फारूक अब्दुल्ला की मां अकबर बेगम ने यहां जीत दर्ज की. इसके बाद साल 1989 तक इस सीट पर अब्दुल्ला परिवार की ही कब्जा रहा. 1996 में यहां पर कांग्रेस के गुलाम मीर को जीत मिली लेकिन 1998 के चुनाव में उमर अबदुल्ला ने फिर से यहां नेशनल कॉन्फ्रेंस यानी NC का परचम लहरा दिया जो 2014 तक कायम रहा. साल 2014 में पीडीपी के तारिख अहमद ने यहां फारूक अब्दुल्ला को मात दी थी.कुल मिलाकर देखा जाए तो श्रीनगर सीट पर अब तक 15 बार चुनाव हुए हैं और उसमें से 8 बार अब्दुल्ला परिवार का यहां कब्जा रहा है. सबसे अधिक चार बार फारूक अब्दुल्ला यहां से सासंद रहे और 3 बार उनके बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला. फारूक अब्दुल्ला ने 1980, 2009, 2017 और 2019 में और उमर अब्दुल्ला ने यहां 1998 से 2004 तक लगातार जीत दर्ज की है.
वैसे यहां चुनाव करना पिछले कई दशकों से प्रशासन के लिए मुश्किल का सबब रहा है. 2019 के चुनावों में श्रीनगर लोकसभा सीट पर सिर्फ 13 प्रतिशत मतदान हुआ था.यहां तक की इस लोकसभा सीट के 70 मतदान केंद्रों पर हिंसा की आशंका के कारण एक भी वोट नहीं डाला गया. नए परिसीमन के अनुसार श्रीनगर लोकसभा सीट पर करीब 17 लाख मतदाता हैं. 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद किए गए परिसीमन में श्रीनगर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र को फिर से पुनर्गठित किया गया है, जिसमें शोपियां और पुलवामा जिलों की छह सीटों को शामिल किया गया है, जबकि बडगाम जिले के दो विधानसभा क्षेत्रों को इससे हटा दिया गया है.
अब 2024 के चुनाव में असली खेल परिसीमन की वजह से दिख सकता है. क्योंकि शोपिया और पुलवामा को शामिल करने से पीडीपी यहां मजबूत हुई है क्योंकि पार्टी ने 2014 के विधानसभा चुनावों में इन जिलों में सभी छह क्षेत्रों में जीत हासिल की थी. पार्टी ने 2014 के विधानसभा चुनाव में चाडूरा और चरारे शरीफ की दो सीटें जीती थीं. परिसीमन की वजह से इस बार नेशनल कॉन्फ्रेंस को अपना गढ़ बचाने में परेशानी तो आएगी ही साथ ही साथ अनुच्छेद 370 निरस्त होने के बाद ये श्रीनगर में पहला चुनाव होगा. जिस वजह से यहां के नतीजों पर पूरे देश की निगाह रहेगी.