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गरियाबंद पुलिस कप्तान के द्वारा राजिम माघी पुन्नी मेला 2021 के संबंध में ली गई समीक्षा बैठक

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अपना भारत वर्ष मेलों का देश हैं:पुलिस कप्तान श्री पटेल
समीक्षा बैठक में गरियाबंद, रायपुर, धमतरी के राजपत्रित एवं अन्य अधिकारी हुये शामिल ।
बैठक के दौरान मेला स्थल पर यातायात एवं सुरक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने किया गया चर्चा
मेला में यातायात व्यवस्था को सुदृढ़ करने हेतु 03 जोन एवं 12 सेक्टर में डिवाईड किया गया है
मेला के दौरान ड्यूटीरत अधिकारी/कर्मचारियों के लिए रूकने एवं भोजन का पुख्ता इंतजाम
मेला में आमजन की सुरक्षा की दृष्टी से मेला स्थलो में 120 सीसीटीवी कैमरा लगाया जा रहा है ।
गरियाबंद।
छत्तीसगढ़ की प्रयाग नगरी राजिम में प्रति वर्ष होने वाले मेले को कुम्भ के नाम से भी जाना जाता था,किंतु वर्ष 2019 से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की शासन आते ही, सरकार ने पुनः राजिम पुन्नी मेला महोत्सव मनाने का निर्णय लिया था। कुछ वर्ष पहले यह एक मेले का स्वरुप था यहाँ प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है राजिम तीन नदियों का संगम है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है,यह मुख्य रूप से तीन नदिया बहती है, जिनके नाम क्रमश महानदी,पैरी नदी तथा सोढुर नदी है,राजिम तीन नदियों का संगम स्थल है, संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी विराजमान है, वर्ष 2001से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था,2005 से इसे कुम्भ के रूप में मनाया जाता रहा था, और अब 2019 से राजिम पुन्नी मेला महोत्सव मनाया जाएगा। यह आयोजन छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग, एवम स्थानीय आयोजन समिति के सहयोग से होता है,मेला की शुरुआत कल्पवाश से होती है पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते है पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पटेश्वर, फिंगेश्वर, ब्रम्हनेश्वर, कोपेश्वर तथा चम्पेश्वर नाथ के पैदल भ्रमण कर दर्शन करते है तथा धुनी रमाते है, 101कि.मी.की यात्रा का समापन होता है और माघ पूर्णिमा से कुम्भ का आगाज होता है,राजिम कुम्भ में विभिन्न जगहों से हजारो साधू संतो का आगमन होता है, प्रतिवर्ष हजारो के संख्या में नागा साधू,संत आदि आते है,तथा शाही स्नान तथा संत समागम में भाग लेते है,प्रतिवर्ष होने वाले इस महाकुम्भ में विभिन्न राज्यों से लाखो की संख्या में लोग आते है,और भगवान श्री राजीव लोचन,तथा श्री कुलेश्वर नाथ महादेव जी के दर्शन करते है, और अपना जीवन धन्य मानते है, लोगो में मान्यता है की भनवान जगन्नाथपुरी जी की यात्रा तब तक पूरी नही मानी जाती जब तक भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ के दर्शन नहीं कर लिए जाते, राजिम कुम्भ का अंचल में अपना एक विशेष महत्व है।राजिम अपने आप में एक विशेष महत्व रखने वाला एक छोटा सा शहर है राजिम गरियाबंद जिले का एक तहसील है प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्वो और प्राचीन सभ्यताओ के लिए प्रसिद्द है राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी के मंदिर के कारण प्रसिद्द है। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर महादेव जी का भी मंदिर है। जो संगम स्थल पर विराजमान है। राजिम कुम्भ का मेला प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक चलता है। इस दौरान प्रशासन द्वारा विविध सांस्कृतिक व् धार्मिक आयोजन आदि होते रहते है।गौरतलब हो किपुलिस महानिरीक्षक रायपुर रेंज रायपुर डॉ.आनंद छाबड़ा के दिशा-निर्देश एवं मार्गदर्शन में गरियाबंद पुलिस कप्तान भोजराम पटेल के द्वारा राजिम माघी पुन्नी मेला 2021 के दौरान यातायात व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए गरियाबंद,रायपुर, धमतरी के राजपत्रित एवं अन्य अधिकारियों की समीक्षा बैठक लिया गया। समीक्षा बैठक के दौरान मेले में यातायात एवं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर महत्वपूर्ण बिन्दुओं में चर्चा किया गया। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी राजिम माघी पुन्नी मेला में अधिक मात्रा में श्रद्धालुगण राजिव लोचन एवं कुलेश्वर महादेव के दर्शन के लिएआएंगे। जिससे भीड़ की स्थिति निर्मित होगी। भीड़ की अधिक्ता के कारण यातायात एवं सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण रहेगी। यातायात एवं सुरक्षा की दृष्टि से मेला को 03 जोन एवं 12 सेक्टर में डिवाईड किया गया है। ताकि किसी भी व्यक्ति को परेशानी ना हो।मेला ड्यूटी में आये पुलिस जवानों के लिए मेला ड्यूटी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहती है। जवानों की ड्यूटी की गंभीरता को ध्यान में रख कर सभी जवानों के लिए रूकने एवं भोजन व्यवस्था का पुख्ता इंतजाम किया गया है। मेला के दौरान अधिक मात्रा में श्रद्धालुगण आने से मंदिरों में अधिक भीड़ ईकट्ठा हो जाती है। भीड़ का फायदा उठाते हुये कुछ असमाजिक तत्वों के द्वारा चैन स्नैचिंग, चोरी, छेडछाड करने है, उन सभी असमाजिमक तत्वों के उपर निगाह रखने के लिए 120 सीसीटीवी कैमरा लगवाया गया है। जिसका 24 घण्टा मॉनिटरिंग किया जायेगा।
समीक्षा मीटिंग रहें उपस्थित
सुखनंदन राठौर अति. पुलिस अधीक्षक गरियाबंद, संतोष महतो अति. पुलिस अधीक्षक गरियाबंद, विश्वदीपक त्रिपाठी सी.एस.पी.रायपुर, सारिका वैद्य अनु.अधिकारी कुरूद जिला धमतरी, उमेश राय रक्षित निरीक्षक गरियाबंद, निरीक्षक कृष्णकांत सिदार थाना प्रभारी गोबरा नयापारा, निरीक्षक प्रणाली वैद्य, एस.के. साहू एवं अन्य अधिकारी/कर्मचारी उपस्थित रहे।
अपना भारत वर्ष मेलों का देश हैं:पुलिस कप्तान श्री पटेल
गरियाबंद पुलिस कप्तान भोजराम पटेल ने हमारे प्रतिनिधि से चर्चा करते हुये कहा कि अपना भारत वर्ष मेलों का देश है ये कहूँ तो अतिश्योक्ति नही होगी जहाँ पर हर महीने कही न कहीं मेले लगते रहते है,किसी भी स्थान पर बहुत से लोगों का किसी सांस्कृतिक या व्यापारिक कार्य के लिए एकत्रित होना मेला कहलाता है।कुछ मेले धार्मिक कार्यक्रमों के लिए भी लगाए जाते हैं,मेले व्यक्ति को उसकी दैनिक दिनचर्या से राहत दिला कर आनंद प्राप्त करवाते हैं। बच्चों के लिए मेले मनोरंजन का बहुत ही अच्छा स्त्रोत है,महानदी पूरे छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी नदी है और इसी के तट पर बसी है राजिम नगरी। राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर सोंढूर,पैरी और महानदी के त्रिवेणी संगम-तट पर बसे इस छत्तीसगढ़ की इस नगरी को श्रद्धालु श्राद्ध,तर्पण,पर्व स्नान,दान आदि धार्मिक कार्यों के लिए उतना ही पवित्र मानते हैं जितना कि अयोध्या और बनारस को,मंदिरों की महानगरी राजिम की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता।
राजिम का माघ पूर्णिमा का मेला संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ के लाखों श्रद्धालु इस मेले में जुटते हैं,माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है। इसे राजिम कुंभ मेला भी कहते हैं,महानदी, पैरी और सोढुर नदी के तट पर लगने वाले इस मेले में मुख्य आकर्षण का केंद्र संगम पर स्थित कुलेश्वर महादेव का मंदिर है,हालांकि अब इस मेले को राजिम माघी पुन्नी मेला कहा जाता है।
राजिम में महानदी और पैरी नामक नदियों का संगम है।संगम स्थल पर ‘कुलेश्वर महादेव का प्राचीन मंदर है। इस मंदिर का संबंध राजिम की भक्तिन माता से है। कहते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य के राजिम क्षेत्र राजिम माता के त्याग की कथा प्रचलित है और भगवान कुलेश्वर महादेव का आशीर्वाद इस क्षेत्र को प्राप्त है। दोनों ही कारणों से राजिम मेला आयोजित होता है।
राजिम कुंभ में भी कुंभ की तरह एक दर्जन से ज्यादा अखाड़ों के अलावा शाही जुलूस,साधु-संतों का दरबार,झांकियां,नागा साधुओं और धर्मगुरुओं की उपस्थिति मेले के आयोजन को सार्थकता प्रदान करेगी।श्रद्घालुओं की अनगिनत आस्था,संतों का आशीर्वाद और कलाकारों के समर्पण का ही परिणाम है कि राजिम-कुंभ जिसने देश में अपनी पहचान नए धार्मिक और सांस्कृतिक संगम के तौर पर कायम कर ली है। इस मेले में छत्तीसगढ़ को देशभर में धर्म,कला और संस्कृति की त्रिवेणी के रूप में ख्यात कर दिया है और एक नई पहचान भी दी है। सच कहें तो अनादि काल से छत्तीसगढ़ियों के विश्वास और पवित्रता का दूसरा नाम है। राजिम का पवित्र तीर्थ स्थल, मेला से लेकर लोचन मंदिर तक सभी हैं प्रसिद्ध राजिम को छत्तीसगढ़ का ”प्रयाग” भी कहते हैं।
श्री पटेल ने चर्चा में आगे कहा कि राजिम छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित का प्रसिद्ध तीर्थ है। इसे छत्तीसगढ़ का ‘प्रयाग’ भी कहते हैं। यहाँ के प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर में भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं, प्रतिवर्ष यहाँ पर माघ पूर्णिमा से लेकर शिवरात्रि तक एक विशाल मेला लगता है। यहाँ पर महानदी, पैरी नदी तथा सोंढुर नदी का संगम होने के कारण यह स्थान छत्तीसगढ़ का त्रिवेणी संगम कहलाता है,संगम के मध्य में कुलेश्वर महादेव का विशाल मंदिर स्थित है,कहा जाता है कि वनवास काल में श्री राम ने इस स्थान पर अपने कुलदेवता महादेव जी की पूजा की थी। इस स्थान का प्राचीन नाम कमलक्षेत्र है। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में भगवान विष्णु के नाभि से निकला कमल यहीं पर स्थित था और ब्रह्मा जी ने यहीं से सृष्टि की रचना की थी। इसीलिये इसका नाम कमलक्षेत्र पड़ा। राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग मानते हैं, यहाँ पैरी नदी,सोंढुर नदी और महानदी का संगम है। संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम किनारे पिंडदान,श्राद्ध एवं तर्पण किया जाता है।
राजिम के प्रसिद्ध राजीवलोचन का मन्दिर चतुर्थाकार में बनाया गया था,उत्तर में तथा दक्षिण में प्रवेश द्वार बने हुए हैं। महामंडप के बीच में गरुड़ हाथ जोड़े खड़े हैं। गर्भगृह के द्वार पर बांये-दांये तथा ऊपर चित्रण है, जिस पर सर्पाकार मानव आकृति अंकित है एवं मिथुन की मूर्तियां हैं। पश्चात् गर्भगृह में राजिवलोचन अर्थात् विष्णु का विग्रह सिंहासन पर स्थित है। यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है। जिसके हाथों में शंक, चक्र, गदा और पदम है जिसकी लोचन के नाम से पूजा होती है।मंदिर के दोनों दिशाओं में परिक्रमा पथ और भण्डार गृह बना हुआ है।
महामण्डप बारह प्रस्तर खम्भों के सहारे बनाया गया है। उत्तर दिशा में जो द्वार है वहां से बाहर निकलने से साक्षी गोपाल को देख सकते हैं। पश्चात् चारों ओर नृसिंह अवतार,बद्री अवतार, वामनावतार,वराह अवतार के मन्दिर हैं। दूसरे परिसर में राजराजेश्वर,दान-दानेश्वर और राजिम भक्तिन तेलिन के मंदिर और सती माता का मंदिर है। इसके बाद नदियों की ओर जाने का रास्ता है,यहां जो द्वार है वह पश्चिम दिशा का मुख्य एवं प्राचीन द्वार है। जिसके ऊपर राजिम का प्राचीन नाम कमलक्षेत्र पदमावती पुरि लिखा है। नदी के किनारे भूतेश्वर व पंचेश्वर नाथ महादेव के मंदिर हैं और त्रिवेणी के बीच में कुलेश्वर नाथ महादेव का शिवलिंग स्थित है।
छत्तीसगढ़ के मेला-मड़ई
श्री पटेल का मानना है कि विविधतापूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरूप के मेलों का लंबा सिलसिला है, इनमें मुख्यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखा, रायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ- हरिहाट, चइत-राई और व्यापारिक मेला, कटघोरा-कोरबा अंचल का बार, दक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजार, मातर और मेला जैसे जुड़ाव अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवन्त उत्सव हैं। मेला ‘होता’ तो है ही,’लगता’, ‘भरता’ और ‘बैठता’ भी है।
अगहन माह बड़े भजन रामनामी मेला (रायपुर – बिलासपुर संभाग) गीता का उद्धरण है- ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहं …’, अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है और यह व्याख्या सटीक जान पड़ती है कि खरीफ क्षेत्र में अगहन लगते, घर-घर में धन-धान्य के साथ गुरुवार लक्ष्मी-पूजा की तैयारी होने लगती है, जहां लक्ष्मी वहां विष्णु। इसी के साथ मेलों की गिनती का आरंभ,अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- ‘राम’ अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं, द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्हें अच्छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्य बना लिया जाता। भक्तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता। संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख ‘रामराम’ गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।श्री पटेल आगे कहते है कि मेले में परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर,प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है। इस मेले और समूह की विशिष्टता ने देशी-विदेशी अध्येताओं, मीडिया प्रतिनिधियों और फिल्मकारों को भी आकर्षित किया है।
पौष माह के विभिन्न मेले
श्री पटेल ने आगे कहा कि रामनामी बड़े भजन के बाद तिथि क्रम में पौष पूर्णिमा अर्थात् छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है। इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है। जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है। बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है। ‘मधुमास पुनीता’ होते हुए ‘…ऋतूनां कुसुमाकरः’, वसंत ऋतु-रबी फसल तक चलने वाले मेलों के मुख्य सिलसिले का समापन चइत-राई से होता है, सरसींवां और भटगांव के चैत नवरात्रि से वैशाख माह के आरंभ तक चलने वाले चइत-राई मेले पुराने और बड़े मेले हैं। सपोस (चंदरपुर) का चइत-राई भी उल्लेखनीय है। चइत-राई का चलन बस्तर में भी है।
रामराम मेला
श्री पटेल आगे कहते है कि सिद्धमुनि आश्रम,बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है।शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद,शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ ‘ख्याला’ मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा ‘कटमुंहा’ मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का ‘जतरा’ यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को ‘सूखा लहरा’ लेना कहा जाता है।
क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले
श्री पटेल ने बताया कि क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।
माघ मास के विभिन्न मेले
आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत ‘तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे’ में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है।
दामाखेड़ा का मेला
शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है। मदकूदीप में एक अन्य पारम्परिक मेला पौष में भी भरता है। दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। पिछले वर्षों में यह स्थल श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के रूप में विकसित हो गया है। यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है। इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।
तिहार-बार मेला
आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले ‘बार’ में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है। छत्तीसगढ़ी का शब्द युग्म ‘तिहार-बार’ इसीसे बना है। इस आयोजन के लिए शब्द युग्म ‘तीज-तिहार’ के तीज की तरह ही बेटी-बहुओं और रिश्तेदारों को खास आग्रह सहित आमंत्रित किया जाता है। गांव का शायद ही कोई घर छूटता हो, जहां इस मौके पर अतिथि न होते हों। इस तरह बार भी मेलों की तरह सामान्यतः पारिवारिक, सामाजिक, सामुदायिक, आर्थिक आवश्यकता-पूर्ति के माध्यम हैं। इनमें तुमान बार की चर्चा और प्रसिद्धि बैलों की दौड़ के कारण होती है। कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में ‘बायर’ नाम से आयोजित होता है। ‘बायर’ में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं। कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ ‘हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे’ टेक से होता है। बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्न) हैं, फसल अच्छी होगी।रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इसका स्वरूप और चमकदार हो गया है। इसी प्रकार सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है। बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है। रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।श्री पटेल ने चर्चा में आगे कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात् आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है। इस अवसर पर राजधानी रायपुर के साथ जिला मुख्यालयों में भी राज्योत्सव का आयोजन किया गया है। इसी क्रम में विभिन्न उत्सवों का जिक्र उपयुक्त होगा। भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
राजिम मेला से एक प्रषंग उजागर होता है:श्री पटेल
श्री पटेल ने आगे यहा भी बताया कि राजिम मेला के एक प्रसंग से उजागर होता मेलों का रोचक पक्ष यह कि मेले में एक खास खरीदी, विवाह योग्य लड़कियों के लिए, पैर के आभूषण-पैरी की होती थी। महानदी-सोढुंर के साथ संगम की पैरी नदी को पैरी आभूषण पहन कर पार करने का निषेध प्रचलित है। इसके पीछे कथा बताई जाती है कि वारंगल के शासक अन्नमराज से देवी ने कहा था कि मैं तुम्हारे पीछे-पीछे आऊंगी, लेकिन पीछे मुड़ कर देखा तो वहीं रुक जाऊंगी। राजा आगे-आगे, उनके पीछे देवी के पैरी के घुंघरू की आवाज दन्तेवाड़ा तक आती रही,लेकिन देवी के पैर डंकिनी नदी की रेत में धंसने लगे। घुंघरू की आवाज न सुन कर राजा ने पीछे मुड़ कर देखा और देवी रुक गईं और वहीं स्थापित हो कर दंतेश्वरी कहलाईं। लेकिन कहानी इस तरह से भी कही जाती है कि देवी का ऐसा ही वरदान राजा को उसके राज्य विस्तार के लिए मिला था और बस्तर से चल कर बालू वाले पैरी नदी में पहुंचते, देवी के पैर धंसने और आहट न मिलने से राजा ने पीछे मुड़ कर देखा, इससे उसका राज्य विस्तार बाधित हुआ। इसी कारण पैरी नदी को पैरी पहन कर (नाव से भी) पार करने की मनाही प्रचलित हो गई। संभवतः इस मान्यता के पीछे पैरी नदी के बालू में पैर फंसने और नदी का अनिश्चित प्रवाह और स्वरूप ही कारण है।राजिम मेले में कतार से रायपुर के अवधिया-धातुशिल्पियों की दुकान होती। वे साल भर कांसे की पैरी बनाते और इस मेले में उनका अधिकतर माल खप जाता, बची-खुची कसर खल्लारी मेला में पूरी हो जाती। विवाह पर कन्या को पैरी दिया जाना अनिवार्य होने से इस मौके पर अभिभावक लड़की को ले कर दुकान पर आते, दुकानदार पसंद करा कर, नाप कर लड़की को पैरी पहनाता। पसंद आने पर अभिभावक लड़की से कहते कि दुकानदार का पैर छूकर अभिवादन करे,उसने उसे पैरी पहनाया है। लड़की,दुकानदार सहित सभी बड़ों के पैर छूती और दुकानदार उसे आशीष देते हुए पैरी बांध-लपेट कर दे देता, पैरी के लिए मोल-भाव तो होता है लेकिन फिर पैरी पहनाने के एवज में दुकानदार को रकम (मूल्य नहीं) भेंट-स्वरूप दी जाती और यह पैरी अगली बार सीधे लड़की के विवाह पर खोल कर उसे पहनाया जाता। इसी के साथ रायगढ़ अंचल के मेलों के ‘मान-जागर’ को याद किया जा सकता है। यहां के प्रसिद्ध धातु-शिल्पी झारा-झोरका, अवधियों की तरह ही मोम-उच्छित तकनीक से धातु शिल्प गढ़ते हैं। इस अंचल में लड़कियों को विवाह पर लक्ष्मी स्वरूप धन-धान्य का प्रतीक ‘पैली-मान’ (पाव-आधा सेर माप की लुटिया) और आलोकमय जीवन का प्रतीक ‘दिया-जागर’ (दीपदान) देना आवश्यक होता, जो झारा बनाते।
राजिम मेला का एक उल्लेखनीय, रोचक विस्तार जमशेदपुर तक है। यहां बड़ी तादाद में छत्तीसगढ़ के लोग सोनारी में रहते हैं। झेरिया साहू समाज द्वारा यहां सुवर्णरेखा और खड़खाई नदी के संगम, दोमुहानी में महाशिवरात्रि पर एक दिन का राजिम मेला-महोत्सव आयोजित किया जाता है। पहले यह आयोजन मानगो नदी के किनारे घोड़ा-हाथी मंदिर के पास होता था, लेकिन ‘मैरिन ड्राइव’ बन जाने के बाद इस आयोजन का स्थल बदल गया है।
शिवरीनारायण-खरौद का मेला
श्री पटेल आगे कहते है कि शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का ‘पट’ बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर ‘भुंइया नापते’ या ‘लोट मारते’ मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है। प्रतिवर्ष होने वाले खासकर ‘तारे-नारे’ जैसी लोक विधाओं का प्रदर्शन अब नहीं दिखता लेकिन उत्सव का आयोजन होने से लोक विधाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण की प्रतिष्ठा तीर्थराज जैसी है। अंचल के लोग सामान्य धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर अस्थि विसर्जन तक का कार्य यहां सम्पन्न होते हैं। इस अवसर पर मंदिर के प्रांगण में अभी भी सिर्फ ग्यारह रुपए में सत्यनारायण भगवान की कथा कराई जा सकती है।यह मेला जाति-पंचायतों के कारण भी महत्वपूर्ण है,जहां रामनामी, निषाद, देवार, नायक और अघरिया-पटेल-मरार जाति-समाज की सालाना पंचायत होती है। विभिन्न सम्प्रदाय,अखाड़ों के साधु-सन्यासी और मनोरंजन के लिए मौत का कुंआ,चारोंधाम, झूला,सर्कस,अजूबा-तमाशा, सिनेमा जैसे मेला के सभी घटक यहां देखे जा सकते हैं। पहले गोदना गुदवाने के लिए भी मेले का इंतजार होता था,अब इसकी जगह रंग-छापे वाली मेहंदी ने ले लिया है। गन्ने के रस में पगा लाई का ‘उखरा’ प्रत्येक मेलार्थी अवश्य खरीदता है। मेले की चहल-पहल शिवरीनारायण के माघ पूर्णिमा से खरौद की शिवरात्रि तक फैल जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में पिनखजूर खरीदी के लिए आमतौर पर उपलब्ध न होने और विशिष्टता के कारण, मेलों की खास चीज होती थी।
शिवरी नारायण मेला
उखरा की तरह ही मेलों की सर्वप्रिय एक खरीदी बताशे की होती है। उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है। इस संदर्भ में ऊपर और खाल्हे राज की पहचान का प्रयास करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रचलित भौगोलिक नामकरण ‘चांतर राज’ है, जो निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ का मध्य मैदानी हिस्सा है, किन्तु ‘ऊपर और खाल्हे’ राज, उच्च और निम्न का बोध कराते हैं और शायद इसीलिए, उच्चता की चाह होने के कारण इस संबंध में मान्यता एकाधिक है।ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।
छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से ‘दरा, पछीना और निमारा’ गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है। इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए ‘परिचय सम्मेलन’ जैसा होने के कारण भी है। बताया जाता है कि विक्रमी संवत की इक्कीसवीं शताब्दी आरंभ होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में आयोजित श्री विष्णु महायज्ञ के पश्चात् इस क्षेत्र में सांकर और मुलमुला के साथ कुटीघाट में भी विशाल यज्ञ आयोजित हुआ जो मेले का स्वरूप प्राप्त कर प्रतिवर्ष भरता आ रहा है।
रतनपुर मेला
‘लाखा चांउर’ की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिर, पीथमपुर में भी है, जहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है। इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तैलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा प्रचलित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया है, जबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘साहू’ जाति का होता है। इस मेले का स्वरूप साल दर साल प्राकृतिक आपदाओं व अन्य दुर्घटनाओं के बावजूद भी लगभग अप्रभावित है। कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘यादव’ जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।
चांतर राज में पारम्परिक रूप से मेले की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथियां माघ पूर्णिमा और महाशिवरात्रि (फाल्गुन बदी 13) हैं और इन्हीं तिथियों पर अधिकतर बड़े मेले भरते हैं। माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगा, रतनपुर, बेलपान, लोदाम, बानबरद, झिरना, डोंगरिया (पांडातराई), खड़सरा, सहसपुर, चकनार-नरबदा (गंड़ई), बंगोली और सिरपुर प्रमुख है। इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसल, अखरार, कोटसागर, लोरमी, नगपुरा (बेलतरा), मल्हार, पाली, परसाही (अकलतरा), देवरघट, तुर्री, दशरंगपुर, सोमनाथ, देव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं। कुछेक शैव स्थलों पर अन्य तिथियों पर मेला भरता है, जिनमें मोहरा (राजनांदगांव) का मेला कार्तिक पूर्णिमा को, भोरमदेव का मेला चैत्र बदी 13 को तथा लटेश्वरनाथ, किरारी (मस्तूरी) का मेला माघ बदी 13 को भरता है।रामनवमी से प्रारंभ होने वाले डभरा (चंदरपुर) का मेला दिन की गरमी में ठंडा पड़ा रहता है लेकिन जैसे-जैसे शाम ढलती है, लोगों का आना शुरू होता है और गहराती रात के साथ यह मेला अपने पूरे शबाब पर आ जाता है। संपन्न अघरिया कृषकों के क्षेत्र में भरने वाले इस मेले की खासियत चर्चित थी कि यह मेला अच्छे-खासे ‘कॅसीनो’ को चुनौती दे सकता था। यहां अनुसूचित जाति के एक भक्त द्वारा निर्मित चतुर्भुज विष्णु का मंदिर भी है। कौड़िया का शिवरात्रि का मेला प्रेतबाधा से मुक्ति और झाड़-फूंक के लिए जाना जाता है। कुछ साल पहले तक पीथमपुर, शिवरीनारायण,मल्हार,चेटुआ आदि कई मेलों की चर्चा देह-व्यापार के लिए भी होती थी। कहा जाता है कि इस प्रयोजन के मुहावरे ‘पाल तानना’ और ‘रावटी जाना’ जैसे शब्द, इन मेलों से निकले हैं। रात्रिकालीन मेलों का उत्स अगहन में भरने वाले डुंगुल पहाड़ (झारखंड-जशपुर अंचल) के रामरेखा में दिखता है। इस क्षेत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक आयोजन बागबहार का फरवरी में भरने वाला मेला है।
बस्तर के मड़ई मेले
श्री पटेल आगे कहा कि धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ई, रूद्रेश्वर महादेव का रूद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है। एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद वाले शुक्रवार को भरता है। मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता है, किन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता है, जबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- ‘डांग’ लाया जाता है अर्थात् मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगा, मड़ई लाते और पूजते हैं, जबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमा, जिसे बिहाव या परघाना कहा जाता है, करते है। मेला, आमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती है। यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थान, जहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगता, वहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।
दशहरा मेला ,जगदलपुर, बस्तर
मड़ई का सिलसिला शुरू होने के पहले, दीपावली के पश्चात यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता है, जिसमें मवेशी इकट्ठा होने की जगह- ‘दइहान’ अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है। मेला-मड़ई की तिथि को खड़खड़िया और सिनेमा, सर्कस वाले भी प्रभावित करते थे और कई बार इन आयोजनों में प्रायोजक के रूप में इनकी मुख्य भागीदारी होती थी। दूसरी तरफ मेला आयोजक, खासकर सिनेमा (टूरिंग टाकीज) संचालकों को मेले के लिए आमंत्रित किया करते थे और किसी मेले में टूरिंग टाकीज की संख्या के आधार पर मेले का आकार और उसकी महत्ता आंकी जाती थी। मेला-मड़ई के संदर्भ में सप्ताह के निर्धारित वार पर भरने वाले मवेशी बाजार भी उल्लेखनीय हैं। मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में व्यापारी नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परा, मवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है। कई पुस्तकें ऐसे ठिकानों पर ही आसानी से मिल पाती हैं और जिनसे लोकरुचि का अनुमान होता है।
बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा है, जो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है। अधिकतर मड़ई एक दिन की ही होती है, लेकिन समेटते हुए दूसरे दिन की ‘बासी मड़ई’ भी लगभग स्वाभाविक अनिवार्यता है। चूंकि मड़ई, तिथि-पर्व से संलग्न सप्ताह दिवसों पर भरती है, इसलिए इनका उल्लेख मोटे तौर पर अंगरेजी माहों अनुसार किया जा सकता है। केशकाल घाटी के ऊपर, जन्माष्टमी और पोला के बीच, भादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है। भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलिया, कोण्गूर, औवरी, हडेंगा, कोपरा, विश्रामपुरी, आलौर, कोंगेटा और पीपरा, नौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है।भंगाराम देवी प्रमुख होने के नाते प्रत्येक देवी-देवताओं के कार्यों की समीक्षा करती है और निर्देश या दंड भी देती है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में कई ग्रामों की देव शक्तियां आज भी बंदी है। यहां के मंदिर का सिरहा, बंदी देवता के सिरहा पुजारी से भाव आने पर वार्ता कर दंड या मुक्ति तय करता है। परम्परा और आकार की दृष्टि से भंगाराम मड़ई का स्थान विशिष्ट और महत्वपूर्ण है।
भंगाराम मेला,केशकाल,बस्तर
श्री पटेल ने आगे कहा कि मड़ई के नियमित सिलसिले की शुरूआत अगहन पूर्णिमा पर केशरपाल में भरने वाली मड़ई से देखी जा सकती है। इसी दौर में सरवंडी, नरहरपुर, देवी नवागांव और लखनपुरी की मड़ई भरती है। जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार), चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुर, हल्बा, हर्राडुला, पटेगांव, सेलेगांव (गुरुवार, कभी फरवरी के आरंभ में भी), अन्तागढ़, जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है। फरवरी में देवरी, सरोना, नारायणपुर, देवड़ा, दुर्गकोंदल, कोड़ेकुर्से, हाटकर्रा (रविवार), संबलपुर (बुधवार), भानुप्रतापपुर (रविवार), आसुलखार (सोमवार), कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।संख्या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में एक, जगदलपुर का दशहरा मेला है। बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है। बनमाली कृष्णदाश जी के बारामासी गीत की पंक्तियां हैं-
”माघ महेना बसतर चो, मंडई दखुक धरा। हुताय ले फिरुन ददा, गांव-गांव ने मंडई करा॥” बस्तर के बाद घोटिया, मूली, जैतगिरी, गारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है। यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव के अवतार की ख्यातियुक्त कंठी वाले बाबा बिहारीदास के चपका की मड़ई का है, जिसकी प्रतिष्ठा पुराने बड़े मेले की है तथा जो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन है। मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार), केशकाल, फरसगांव, विश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला नौ दिन चलता है।अप्रैल में धनोरा, भनपुरी, तीरथगढ़, मावलीपदर, घोटपाल, चिटमटिन देवी रामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।
मेला-मड़ई के स्वरूप में समय के कदमताल, परिवर्तन अवश्य हुआ है, किन्तु धार्मिक पृष्ठभूमि में समाज की आर्थिक-सामुदायिक आवश्यकता के अनुरूप इन सतरंगी मेलों के रंग की चमक अब भी बनी हुई है और सामाजिक चलन की नब्ज टटोलने का जैसा सुअवसर आज भी मेलों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।