नई दिल्ली
खजूरी खास में 15 साल की एक लड़की अचानक एक अगस्त को घर से गायब हो गई। उसके भाई का कहना है, मम्मी-पापा रेहड़ी लगाते हैं, रात 8:30 बजे घर लौटे तो देखा बहन घर पर नहीं थी। थाने गए, एफआईआर भी हुई मगर अब तक वो नहीं मिली। फिर एक दिन बिहार में हमारे गांव से किसी ने बताया कि उसे वहां 25-26 साल के लड़के के साथ देखा गया जो दिल्ली में हमारा पड़ोसी है। हमने पुलिस को बताया, मगर वो कह रही है, कल जाएंगे, परसो जाएंगे। मेरे पापा बिहार तुरंत गए, मगर वो वहां नहीं मिली। हम सब बहुत डरे हुए हैं, वो छोटी है, अभी तो स्कूल ही जाती है…।
गुमशुदा लड़कियों को ट्रेस करना मुश्किल
दिल्ली में इस हालिया केस की तरह कई गुमशुदा लड़कियों-महिलाओं की ट्रेस करना एक बड़ा सवाल है। पुलिस क्यों इन्हें ढूंढ नहीं पाती है! नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि दिल्ली में 2019 से 2021 के बीच 84 हजार लड़कियों और महिलाओं गुमशुदा हुई हैं, मगर ट्रेसिंग 50% से भी कम है।
‘स्टाफ-संसाधन कम, राज्यों की पुलिस में तालमेल की कमी’
दिल्ली पुलिस के अधिकारियों का कहना है कि जांच एक चुनौती है। खासतौर पर तब जब स्टाफ की कमी हो, दूसरे राज्य की पुलिस से कॉर्डिनेशन ना मिल पाए, संसाधन भी कम हो। एंट्री ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट, दिल्ली क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी कहते हैं, हमें तब ज्यादा दिक्कत आती है, जब पता चलता है कि लड़की किसी दूसरे राज्य में है। उस वक्त उस राज्य की पुलिस की तुरंत मदद चाहिए होती है, जो कई बार नहीं मिल पाती। कई बार दूसरे राज्य तुरंत जाने के लिए स्टाफ की कमी रहती है। कभी-कभी खर्चा भी जेब से भरना होता है, जो बाद में मिल जाता है। तुरंत जाने के लिए कई बार ट्रेन टिकट वेटिंग में होता है। इन सभी काम के लिए एक इंटीग्रेटेड सिस्टम होना चाहिए।
‘अगर ठीक से हो जांच तो 90% केस ट्रेस हो सकते हैं’
रिटायर्ड आईपीएस अफसर आमोद कंठ कहते हैं, गुमशुदा लोगों में सही ढंग से जांच हो 80%-90% लोग मिल जाते हैं। जो लड़कियां-महिलाएं गायब हो रही हैं, उसमें एलोपमेंट एक छोटा हिस्सा है। 90% मामले ऐसे हैं, जिनमें लड़कियों को उनके जानने वाले ले जाते हैं, तो ट्रेस करना ज्यादा मुश्किल नहीं।
वह कहते हैं, दरअसल जांच उन्हीं मामलों में होती है, जहां किडनैपिंग का मामला हो। मिसिंग बच्चों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मामले को किडनैपिंग की आशंका मानते हुए जांच होती है, एफआईआर भी जरूरी है। बाकी मिसिंग मामलों में पुलिस डेली डायरी एंट्री करती है, इसलिए जांच गंभीरता से नहीं होती। मिसिंग केस क्राइम नहीं माना जाता। बाकी बड़े मामलों के बीच पुलिस इनपर ध्यान नहीं देती। राज्यों की पुलिस के बीच तालमेल में भी बड़ी कमी भी है। कमी अलग-अलग एजेंसियों की भी है। मसलन सोशल वेफलेयर डिपार्टमेंट, चाइल्ड वेलफेयर कमेटी जो पुलिस के साथ मिलकर बेहतर काम नहीं कर पा रही हैं। पुलिस रिकवर कर भी लेगी तो परिवार के हवाले करेगी, वरना शेल्टर होम। मगर कई बार ‘मिसिंग’ मामले इसलिए सामने आते हैं क्योंकि घर में वो सुरक्षित नहीं होते, इनके लिए सरकार का मजबूत रिहैबिलिटेशन सिस्टम नहीं है। आमोद कंठ कहते हैं, हमें यह भी देखना होगा कि 3500-4000 लावारिस शव हर साल हमें मिलते हैं, इनमें कई महिलाएं-बच्चियां भी होती हैं, जो मिसिंग मामले हो सकते हैं। कितने ही बच्चे रिकॉर्ड्स में नहीं हैं, इनके गायब होने का तो पता ही चलता। मतलब आंकड़ा और बड़ा है।
सेंट्रलाइज्ड सिस्टम, ट्रैफिकिंग के एंगल से जांच जरूरी
दिल्ली महिला आयोग स्वाति मालीवाल का कहना है, गुमशुदा की तलाश के लिए सभी राज्यों के बीच सेंट्रलाइज्ड सिस्टम नहीं है, जबकि अब तो आधार कार्ड, बायोमेट्रिक से यह काम आसान हो सकता है। खोया-पाया सिस्टम को मजबूत बनाने की जरूरत है। इन मामलों में पुलिस अभी सिर्फ एक प्रोटोकॉल की तरह काम कर रही है। हक– सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की डायरेक्टर भारती अली हक कहती हैं, मिसिंग मामलों में सरकार की एसओपी भी बदलने की जरूरत है, जो कहती है कि मिसिंग केस 4 महीने में ट्रेस नहीं होता है तो इसे एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट को भेजा जाए। मगर इतने समय में लड़की को काफी नुकसान बहुत चुका होता है, बड़ा अपराध तक हो सकता है।