स्वतंत्र तिवारी – 9752023023
रायपुर/ क्या एक कवि को समाज सुधारक कहना सही है ? या कवि केवल अब मनोरंजन का साधन मात्र रह गया हैं ? कवि को आप किस नज़रिए से देखते हैं ? इतिहास साक्षी है कि समाज व मनुष्य में बदलाव के लिए कवियों ने अपनी कलम का सहारा लिया है चाहे वह समाज सुधार के लिए हो, चाहे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए या समाज की रूढ़िवादी कुरीतियों से लोगों को अवगत कराने के लिए…। कहा जाता हैं कि जो काम तलवार नहीं कर सकती वो कलम कर देती है।
यह भी कटु सत्य हैं कि स्वतंत्रा संग्राम सेनानी अपनी कविताओं के माध्यम से ऐसी बात कह देते थे जो अंग्रेजों को पता नहीं चलता था और देश के नागरिक आंदोलित हो जाते थे।साहित्यकार की विधा चाहे जो भी हो मनुष्य के मन पर अमिट छाप छोड़ जाती है।
आजकल के कवि सम्मेलनों में महिला कवि/कवियत्री के ऊपर अश्लील टिप्पणियां बहुत ही आम बात है, बल्कि शायद इसके पैसे भी अधिक मिलते होंगे ? क्या गीत-ग़ज़ल-कविता जैसी महफ़िल में ये शोभनीय है ? क्या कवि या शायर भी इसका बहिष्कार नहीं कर सकते ? साहित्यकारों ने बताया कि कवि सम्मेलन के कई आयोजनों में यह देखा गया हैं कि कई आयोजनों में कवियों, मंच संचालक द्वारा कवियत्री से हँसी-ठिठोली के माध्यम से अश्लीलता परोसने की कोशिश की जाती हैं, कभी-कभी यह अश्लीलता, फुहड़ता इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि कई श्रोता जो अपने परिवार के साथ कार्यक्रम देखने आते हैं वे शर्मिंदा होकर घर चले जाते हैं। इससे माँ सरस्वती का अपमान हैं। साथ ही पहले कवि सम्मेलन, कवि गोष्ठि के आयोजन हुआ करते थे जो अब हास्य कवि सम्मेलन के रूप में तब्दील हो गए हैं, जिसमें अधिकांश कवि केवल चुटकुलों के माध्यम से दर्शकों/श्रोताओं का मनोरंजन करते हैं। गीत, ग़ज़ल, कविता मानों इस हास्य कवि सम्मेलनों में गुम सी हो गई हैं। साहित्यकारों का कहना हैं कि साहित्यकारों का भी कर्तव्य हैं कि वे ऐसे कवि सम्मेलनों का बहिष्कार करें जिन मंचों में अश्लीलता और फुहड़ता की बदबू फैली हो। परंतु वर्तमान में कुछ तथाकथित साहित्यकार या कवि खुद आयोजकों और माहौल के हिसाब से ढालना पसंद करते हैं और श्रोताओं को अश्लीलता, फुहड़ता जैसा माहौल दिया जाने लगा हैं, जिससे साहित्यिक मंच और कवि की गरिमा धूमिल हो चुकी हैं।
(उक्त लेख/समाचार में कई साहित्यकारों के विचार सम्मिलित हैं)
कवियत्री अभिलाषा पाण्डेय ने कहा कि हास्य कवि सम्मेलन के नाम पर परोसी जा रही फूहड़ता विचारणीय हैं, आचार्य महावीर प्रसाद जी ने साहित्य को समाज का दर्पण कहां है और उस दर्पण को फूहड़ता के माध्यम से मैला किया जा रहा हैं, एक तरफ स्त्री की अस्मिता की बात करने वाला साहित्य समाज उसी स्त्री को मंच जमाने हेतु वस्तु की तरह प्रस्तुत करता हैं, काव्यपाठ करने वाले कवि की कविता में दुनिया भर की बातें मिल जाती है सिवाय कविता के….आने वाले साहित्यकारों को गलत शिक्षा मिलती है और लोग तो कवि सम्मेलन के मंचों को चुटकुले का मंच समझतें हैं, पैसे भर भर कर लेकर जाते हैं और बहुत पुरस्कार भी पाते हैं और प्रोत्साहित होते हैं, अंत में यही विचार हैं की जैसे बायकाट का चलन चल रहा हैं कवि सम्मेलनों में हो रही फूहड़ता का भी बायकाट होना चाहिए।
साहित्यकार अभिषेक जैन ने कहा कि साहित्य समाज का आईना होता हैं, साहित्य हकीकत से रूबरू कराता हैं, साहित्य कल्पना मात्र नहीं हकीकत और कल्पनाओं के जोड़ का संगम या समंदर हैं परंतु फूहड़ता इसे चीड़ फाड़ रही है, वास्तविकता से दूर ले जाकर कमाऊ पुत्र की तरह बना रही हैं…मोबाइल, सिनेमा, टेलीविजन इन सब में संस्कारों की कमी, और विकारों की अधिकता अब आम बात है, परंतु आज कमर्शियल दुनिया में एक साहित्य ही है, जो संस्कारों का रक्षण कर सकता है, परंतु आयोजकों के द्वारा दिए जा रहे मूल्यों के लालच ने भी साहित्यकारों को फुहड़ता परोसने पर विवश किया हैं, एक साहित्यकार की अपनी स्वयं की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह साहित्यकार का सम्मान बनाए रखें अन्य किसी को भी सम्मान का समझौता करने से रोके।
साहित्यकार रामा साहू ने कहा कि समाज-साहित्य-साधक एक-दूसरे के सम्पूरक माने जाते हैं। बौध्दिक मंच में मनोविनोद के लिए हास्य का और भी अनेक विषय वस्तु है वरन् फूहड़ता उचित नहीं। हास और तालियों की गड़गड़ाहट के लिए और भी साधन है। मूल कथन यह है कि मर्यादासम्मत् मंच संचालन हो मुख्य कवि द्वारा तो ज्यादा श्रेयस्कर है।