जगदलपुर। छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय में माता दंतेश्वरी का मूल मंदिर स्थित है। मां दंतेश्वरी के मंदिर को देश का 52 वां शक्तिपीठ माना जाता है। इस प्राचीन मंदिर का निर्मांण बस्तर के पहले राजा अन्नमदेव ने लगभग 800 वर्ष पहले करवाया था। दन्तेश्वरी देवी को, दुर्गा जी का प्रतिरूप मानकर पूजा की जाती है। मंदिर के गर्भगृह में विराजमान देवी मां दंतेश्वरी के मुख मण्डल में अपूर्व तेजस्विता विद्यमान है, जिसकी आंखें चांदी से निर्मित है। गहरे, चिकने काले पत्थरों से निर्मित मूर्ति की छह भुजाएं हैं, जिनमें शंख, खड्ग, त्रिशुल, घंटा, पाश और एक हाथ से राक्षस के बाल पकड़े हुए है। मूर्ति का एक पांव सिंह पर रखा हुआ है, मांई जी की प्रतिमा के पैरों के समीप दाहिनी ओर एकपाद भैरव की मूर्ति तथा बाईं ओर भैरवी की मूर्ति स्थापित है। मांई दन्तेश्वरी जी के भव्य मूर्ति के पीछे पृष्ठ भाग पर मुकुट के ऊपर पत्थर से तराशी गई कलाकृति नरसिंह अवतार के द्वारा हिरण्य कश्यप के संहार का दृश्य है।
इस मंदिर को पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम के तहत राष्ट्रीय महत्व का दर्जा प्राप्त है। दंतेश्वरी मंदिर के अंदर प्रवेश करने के पहले एक गरूढ़ स्तम्भ दिखाए देगा। इसे बारसूर से लाकर स्थापित किया गया था, यह 1 हजार साल पुराना गरूढ़ स्तम्भ है। मंदिर के दूसरे कक्ष में विष्णु की प्रतिमा है और दंतेश्वरी के मंदिर के गर्भ गृह में दंतेश्वरी देवी के ऊपर भगवान नरसिंह की भी प्रतिमा है। इसीलिए यहां गरूढ़ स्तम्भ स्थापित करना जरूरी हो गया था। क्योंकि भगवान विष्णु के मंदिरों के सामने गरूढ़ स्तम्भ बनाए जाने की परम्परा है। मंदिर के भीतर गर्भगृह को मिलाकर चार कक्ष बने हैं। पहला प्रांगण है दूसरे में देवी-देवतओं की मूर्तियां है तीसरा कक्ष गर्भगृह के ठीक पहले है और अंत में है गृभगृह है।
दंतेवाड़ा मंदिर में अंदर जाने पर आपको तीन शिलालेख मिलेंगे और अलग अलग देवी-देवताओं की 56 पत्थर की प्रचीन मूर्तियां भी मिलेंगी। मंदिर में 1140 और 1160 के शिलालेखी साक्ष्यों से पता चलता है यहां की मूतियां लगभग 800 वर्ष से अधिक पुरानी हैं। दंतेश्वरी मंदिर के इतिहास पर गौर करें तो इसे बस्तर के पहले राजा अन्नमदेव ने बनवाया फिर दूसरी बार महारानी प्रफुल्लदेवी और प्रफुल्लचंद भंजदेव के आग्रह पर 1932-33 में ब्रिटिश प्रशासक डीआर रत्नम आईसीएस और मुंशी उमाशंकर एसडीओ के निर्देशन में किया गया। मंदिर में तीन शिलालेख, जय-विजय की 06 मूर्तियां, भैरवी की तीन मूतियां, दक्षिणमुखी शिवलिंग, भगवान विष्णु की प्रतिमा, भगवान गणेश की मूर्तियां और 09 ग्रहों की आकृतियां बनी हैं।
मंदिर के पीछे एक खूबसूरत बगीचा बना हुआ है, जिसे मांई जी की बगिया कहते हैं। इस बगिया में अकोला के पेड़ की नीचे दंतेश्वरी माई जी के पदचिन्ह बने हैं। श्रद्धालु पेड़ की शाखाओं में मनौती के चुनरी बांधते हैं। मान्यता यह है कि बिना भैरव बाबा के दर्शन के माता का दर्शन अधूरा माना जाता है। इसी लिए दंतेश्वरी के दर्शन के बाद भैरव बाबा का दर्शन श्रद्धालु जरूर करते हैं। शंकनी-डंकनी नदी के पश्चिम में भैरव बाबा के मंदिर बने है। आजकल इस नदी पर पुल बन चुका है, पुल पार कर जाने के बाद पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैरव बाबा का मंदिर नजर आएगा। मंदिर के अंदर गर्भगृह में दुर्लभ प्रतिमाएं हैं, जिन्हें वन भैरव, जटा भैरव, नृत्य भैरव और काल भैरव कहा जाता है। इसके साथ ही 6 प्रकार के शिवलिंग, एक यज्ञ कुण्ड, और मंदिर के पीछे एक तालाब है जिसे भैरव बंद कहा जाता है। भैरव बाबा मंदिर के पास ही वन देवी का मंदिर है, जहां श्रद्धालु पेड़ों की पत्तियां अर्पित करते हैं। वन देवी को यहां डालखाई और वनदुर्गा भी कहा जाता है।
केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार माता सती का दांत यहां गिरा था, इसलिए यह स्थल पहले दंतेवला और अब दंतेवाड़ा के नाम से चर्चित है। नदी किनारे भैरव का आवास माना जाता है, यहां नलयुग से लेकर छिंदक नाग वंशीय काल की दर्जनों मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। मां दंतेश्वरी को बस्तर राज परिवार की कुल देवी माना जाता है, परंतु अब यह समूचे बस्तरवासियों की अधिष्ठात्री देवी हैं।
दंतेवाड़ा में मूल माता दंतेश्वरी मंदिर के स्थापना के बाद राजधानियां बदलती रही और राजधानियों में राजपरिवार की कुलदेवी दंतेश्वरी देवी की स्थापना भी होती रही। इसी संदर्भ में जगदलपुर के राजधानी बनने के बाद राजमहल परिसर में दक्षिण द्वार पर बस्तर के राजा राजा रूद्रप्रताप के शासन काल में इस मंदिर का निर्माण 1890 करवाया। मंदिर के अंदर जाने से आपको माई दंतेश्वरी की प्रतिमा और सिंह मूर्ति दिखाई देगी जो सफेद संगमरमर से बनी है। मंदिर के तीन खण्डों में बना है, प्रथम खण्ड पानी, पूजन सामग्री आदि के लिए उपयोग में लाया जाता है। द्वितीय खंड के मध्य में मांई दन्तेश्वरी की प्रतिमा स्थापित है। तीसरे खंड में विष्णु जी की मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह के ठीक सामने सभा मण्डप है जहां लकडि?ों के पुराने स्तंभ मौजूद हैं, उन स्तंभों में सुंदर कारीगरी की हुई है। माता दंतेश्वरी चालुक्य राजवंश की कुलदेवी मानी जाती हैं। दंतेश्वरी देवी वारंगल होते हुए बस्तर अंचल में राजाओं के साथ आकर राजदेवी और बाद में जनदेवी या लोकदेवी कहलाईं, इसीलिए बस्तर के प्रत्येक क्षेत्र में बड़ी श्रद्धा से दंतेश्वरी देवी की पूजा अर्चना होती है।