नई दिल्ली
दिल्ली चुनाव में मुख्य मुद्दा रेवड़ी है यह तो स्पष्ट है। किसी भी दल को सत्ता तक पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका इसी से तय होगी कि जनता को कौन यह विश्वास दिला सकता है कि वही सौ फीसद रेवड़ी लाभार्थी को दे सकता है। यही कारण है कि हर पार्टी चरणों में रेवड़ियों की घोषणा कर रही है ताकि इसकी याद ताजा रहे। हालांकि, इस बीच एक सवाल यह भी है कि क्या मुख्यमंत्री चेहरे की महत्ता धीरे-धीरे चुनाव में कम होती जा रही है। चुनाव दर चुनाव जो अनुभव हो रहे हैं उसमें इसे नकारा नहीं जा सकता है कि चेहरे की महत्ता परिस्थिति के अनुरूप बदलती है। जब रेवड़ी संस्कृति हावी होने लगे तो मुद्दा के रूप में चेहरा फीका पड़ने लगता है।
मुद्दा भारी या चेहरा?
कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र तक हर चुनाव में मुद्दा चेहरे पर भारी पड़ा। वैसे भाजपा का मानना है कि राजनीति में प्रयोग अहम होता है। पार्टी तय सिद्धांत के अनुसार चलती है लेकिन मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करना या न करना परिस्थिति और रणनीति के अनुसार तय होता है।
राष्ट्रीय स्तर पर दिखता है चेहरे दबदबा
राष्ट्रीय स्तर की बात की जाए तो 2014 से लेकर अब तक चेहरे का दबदबा दिखा। 2014 लोकसभा चुनाव में मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी का सीधा मुकाबला था। उसके बाद के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के सामने विपक्ष से किसी चेहरे को सामने रखने की कोशिश ही नहीं हुई। यह चेहरे का ही असर था कि 2024 में विपक्ष की ओर से रेवड़ी की बरसात होने के बावजूद भाजपा सहयोगी दलों के साथ फिर से बहुमत में आ गई। अकेले भाजपा बहुमत से नीचे रह गई। गुजरात से लेकर केंद्र तक मोदी युग में यह पहली बार हुआ। साफ है कि रेवड़ी की आंधी बहुत ताकतवर होती है। अगर दिल्ली की बात हो तो 2013 से अब तक जो तीन विधानसभा चुनाव हुए हैं उसमें आम आदमी पार्टी के लिए अरविंद केजरीवाल का कद पार्टी से बड़ा दिखा। उनका विधायक वैसे ही जीतता रहा जिस तरह केंद्र में भाजपा के सांसद मोदी के नाम से जीतते रहे।
कांग्रेस ने भी किया प्रयोग
वहीं, इस बार दिल्ली में आप के साथ-साथ भाजपा और कांग्रेस पर भी रेवड़ी की उसी पिच पर उतर गई है जिसपर पहले अकेले आप दिखती थी। इसमें शक नहीं कि प्रदेश भाजपा के लिए अब भी केजरीवाल से सीधे मुकाबले के लिए कोई चेहरा नहीं है। आप इसे भी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है। अलग-अलग विधानसभाओं में आप की ओर से यह सवाल खड़ा किया जा रहा है और भाजपा के नेता कभी सिर्फ यह सवाल खड़ा कर चुप रह जाते हैं कि कानूनी बंधनों के कारण केजरीवाल मुख्यमंत्री बन ही नहीं सकते हैं। पर वोटरों के बीच यह अब भी चर्चा का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया है। न तो आप कैंप से विस्तार से यह साबित करने की कोशिश होती है कि अदालती फैसले केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक सकते हैं। चाहे जो भी हो आप सत्ता में आई तो केजरीवाल ही मुख्यमंत्री बनेंगे और न ही भाजपा इस चर्चा के जरिए केजरीवाल को मुख्य मुद्दा बनाना चाहती है। थोड़ा छिपा हुआ डर दोनो तरफ है।
बीजेपी का मुख्य चेहरा कौन?
यह सच है कि 1998 से दिल्ली की सत्ता से बाहर रही प्रदेश भाजपा में कोई सर्वमान्य और लोकप्रिय चेहरा नहीं है। विजय कुमार मल्होत्रा, हर्षवर्धन, किरण बेदी जैसे चेहरे फेल हो चुके हैं। ऐसे में फिर से वही दाव सटीक लग रहा है जो छत्तीसगढ़, राजस्थान, ओडिशा जैसे राज्यों में अपनाया गया। यानी वहां के स्थापित और ताकतवर हो चुके कांग्रेस मुख्यमंत्रियों- भूपेश बघेल, अशोक गहलोत और नवीन पटनायक के सामने परोक्ष रूप से मोदी की गारंटी को पेश कर दिया गया।
पिछले कुछ चुनावों की बात करें तो सिर्फ हरियाणा में भाजपा ने नायब सिंह सैनी को चेहरे के रूप में परोक्ष रूप से प्रोजेक्ट किया था। तीन साल पहले उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी की जोड़ी चली। बाकी राज्यों में भाजपा की रेवड़ी बंटी लेकिन गारंटी मोदी की चली। सभी मामले सफल रहे। दिल्ली में भी वही दाव है। भाजपा ने पहले से दिल्ली वासियों को मिल रही मुफ्त की सेवाएं जारी रहेंगी इसकी घोषणा खुद प्रधानमंत्री मोदी से करवाई गई। हालांकि, भाजपा के अंदर जरूर यह विमर्श तेज होने लगा है कि विश्व की सबसे बड़ी होने के बावजूद राज्यों में सर्वमान्य और लोकप्रिय चेहरे का अभाव चिंता का विषय है।