रायपुर। परंपराएं यूं ही नहीं चली आती सैकड़ों सालों से, परंपराओं के साथ होता है पीढ़ियों का अनुभव, परंपराओं में छुपे होते हैं पुरखों के लोकहित के संदेश। हरेली पर्व में भी कुछ ऐसी परंपराएं हैं, जिनके मायने और नीहित संदेशों को गहराई से जाने बिना हरेली त्योहार के मूल अर्थ को जान पाना कठिन है। तो आइए हरेली की उन परंपराओं की बात करते हैं, जो लगते तो सहज हैं, किंतु असल में गहरे अर्थ समेटे हैं।
बनगोंदली और दसमूल का प्रसाद
ये ऐसा प्रसाद है जो हरेली त्योहार के दिन सुबह गांवों के गौठानों में ही मिलता है। ये प्रसाद धेनु चराने का काम करने वाले चरवाहे राउत जन ही बांटते हैं। असल में गांवों के जंगलों से चरवाहे राउतों से अधिक परिचित कौन हो सकते हैं। धेनु चराते वो जंगल की जड़ी बूटियां आसानी से ले भी आते हैं। बनगोंदली और दसमूल भी औषधीय गुणों से युक्त कंद-मूल हैं, जो छत्तीसगढ़ के जंगलों में पाए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर रदालू कांदा, बन कांदा, दसमूर, दसमुड़ ऐसे कई अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। हरेली के पहले चरवाहे राउत जन जंगल से ये कंद-मूल खोदकर लाते हैं, मिट्टी के बर्तन में उबालते हैं और हरेली की सुबह गौठान में गांव वालों को प्रसाद के रूप में बांटते हैं। गांव के लोग बच्चे भी ये कंद-मूल रुचि से खाते हैं। माना जाता है कि औषधीय गुणों से भरे इन कंद-मूलों के सेवन से बरसाती मौसमी बीमारियों, संक्रमण और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से लड़ने के लिए शरीर सशक्त बनता है और बचाव कर पाता है। बरसात का मौसम जन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता है, अपने आस-पास उपलब्ध प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का सेवन कर हम किस प्रकार अपनी सेहत की रक्षा कर सकते हैं, इसका संदेश इस परंपरा से मिलता है।