वाराणसी। मुगलकालीन सभी इतिहासकारों ने यह लिखा है कि काशी के प्रधान शिवालय का ध्वंस करने के बाद आक्रांताओं ने बेशकीमती पत्थर जैसे दिखने वाले शिवलिंग को अपने साथ ले जाने की कोशिश की। तमाम कोशिशों के बाद भी वे शिवलिंग को उसके मूल स्थान से हिला नहीं सके। अंतत: शिवलिंग छोड़ दिया और सारा खजाना लेकर चले गए। शिवलिंग को अपने साथ ले जाने की उनकी तमाम कोशिशें क्यों नाकाम हुईं, इसका उत्तर शिवमहापुराण के 22वें अध्याय के 21वें श्लोक में मिलता है। यह खुलासा इन दिनों पुराणों का विशेष अध्ययन कर रहे बीएचयू में इतिहास विभाग के प्रो. प्रवेश भारद्वाज ने किया है। प्रो. भारद्वाज के अनुसार इतिहास गवाह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक, रजिया सुल्तान, सिंकदर लोदी और औरंगजेब ने काशी के देवालयों को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। सभी ने अपने-अपने काल में काशी के प्रधान शिवालय पर भी आक्रमण किए। मंदिर का खजाना लूटा लेकिन लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग को अपने साथ नहीं ले जा सके। शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस इसलिए नहीं हुए कि क्योंकि वे शिव के आदेश का पालन कर रहे हैं। शिवमहापुराण में एक श्लोक है-‘अविमुक्तं स्वयं लिंग स्थापितं परमात्मना। न कदाचित्वया त्याज्यामिंद क्षेत्रं ममांशकम्।’
पं. ब्रह्मानंद त्रिपाठी ने इस श्लोक की व्याख्या की है-‘शिवलिंग काशी से बाहर अन्यत्र नहीं जा सकते क्योंकि स्वयं शिव ने अविमुक्त नामक शिवलिंग की स्थापना की। शिव ने आदेश दिया कि मेरे अंश वाले ज्योतिर्लिंग तुम इस क्षेत्र को कभी मत छोड़ना।’ ऐसा कहते हुए देवाधिदेव महादेव ने इस ज्योतिर्लिंग को अपने त्रिशूल के माध्यम से काशी में स्थापित कर दिया।
वाटसन ने 1810 में कहा था, हिंदुओं को सौंप दें
अंग्रेज दंडाधिकारी वॉटसन ने 30 दिसम्बर 1810 को ‘वाईस प्रेसिडेंट ऑफ कॉउन्सिल’ में कहा था कि ज्ञानवापी परिसर हमेशा के लिए हिन्दुओं को सौप दिया जाय। उस परिसर में हर तरफ हिंदुओं के देवी-देवताओं के मंदिर हैं। मंदिरों के बीच में मस्जिद का होना इस बात का प्रमाण है कि वह स्थान भी हिंदुओं का ही है। तब अंग्रेजी शासन ने अपने अधिकारी की बात नहीं मानी थी। उस प्रकरण के 212 साल बाद भी ज्ञानवापी परिसर को लेकर दोनों पक्ष अपने-अपने दावों पर अड़े हैं। बीएचयू के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में हुए एक अध्ययन के अनुसार वर्ष-1809 में ज्ञानवापी को लेकर हिंदू-मुस्लिम आमने-सामने हो गए थे। उस दौरान जबरदस्त संघर्ष में हिंदुओं ने ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया था। तब बंगाल के गवर्नर ने बनारस के तत्कालीन दंडाधिकारी वॉटसन से प्रकरण की पूरी जानकारी मांगी थी। वॉटसन ने कहा था कि निश्चित रूप से यह हिंदुओं का स्थान है। इसके करीब 126 साल बाद 11 अगस्त 1936 को स्टेट कॉउंसिल, अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी तथा सुन्नी सेंट्रल वफ्फ बोर्ड ने याचिका दायर की। 1937 में केस को खारिज हो गया। पांच साल तक चला मामला 1942 में हाईकोर्ट में गया। वहां भी मुस्लिम पक्ष के दावे खारिज हो गए थे।