छुरा/गरियाबंद:-ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका में जारी गड़बड़ियों से आम आदमी बेख़बर हो,लेकिन न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्ट्राचार आमतौर पर अवमानना के डर से कभी भी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बन सका क्यों कि ऐसा माना जाता हैं कि भारतीय न्यायपालिका न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है।कार्यकारी हस्तक्षेप से सावधान रहते हुए न्यायाधीश अपने संस्थागत हितों को बचाते हैं। लेकिन क्या भारत की न्यायिक व्यवस्था न्यायिक स्वतंत्रता के उल्लंघन से पीड़ित है?न्यायालय ने जो भी निर्णय दिया है,उसके प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए और न्यायालय की गरिमा का पूरा ध्यान रखते हुए दिये गये निर्णय पर ‘मंथन’ किया जाना आवश्यक है कि दिया गया निर्णय न्याय की श्रेणी में भी आता है कि नही? वास्तव में न्याय करना और निर्णय करना दोनों अलग-अलग हैं।न्याय में तो निर्णय भी समाहित होता है,पर आवश्यक नही कि निर्णय में न्याय भी समाहित हो। निर्णय तो किसी भी समस्या,वाद या परिस्थिति के अवलोकन के उपरांत व्यक्ति के मन में उपजी धारणा या मानसिक अवस्था से उदभूत होता है,पर न्याय के लिए ऐसा नही कहा जा सकता। निर्णय एक पक्षीय भी हो सकता है,एकांगी भी हो सकता है,पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकता है और न्यायाधीश की बौद्घिक प्रतिभा से प्रभावित हो सकता है, परंतु न्याय कभी एकपक्षीय नही होता,एकांगी या पूर्वाग्रह ग्रस्त नही होता है।क्योंकि वह न्यायाधीश की बौद्घिक प्रतिभा से नही अपितु विवेकशक्ति से प्रभावित होता है।और भारत मे कई ऐसे न्यायाधीश हैं जो कि भ्रस्ट्राचार में संलिप्त हैं।
भ्रष्ट्राचार अर्थात भ्रष्ट+आचार।भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण।अर्थात भ्रष्ट्राचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो।जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरूद्ध जाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करने लगता है तो वह व्यक्ति भ्रष्ट्राचारी कहलाता है। आज भारत जैसे सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश में भ्रष्ट्राचार अपनी जड़े फैला रहा है। आज भारत में ऐसे कई व्यक्ति मौजूद हैं जो भ्रष्ट्राचारी है। आज पूरी दुनिया में भारत भ्रष्ट्राचार के मामले में 94वें स्थान पर है। भ्रष्ट्राचार के कई रंग-रूप है जैसे रिश्वत,काला-बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना,पैसा लेकर काम करना,सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि। भ्रष्टाचार के कई कारण है।
भ्रष्टाचार में मुख्य घूस यानी रिश्वत,चुनाव में धांधली,ब्लैकमेल करना,टैक्स चोरी,झूठी गवाही,झूठा मुकदमा,परीक्षा में नकल,परीक्षार्थी का गलत मूल्यांकन,हफ्ता वसूली, जबरन चंदा लेना,न्यायाधीशों द्वारा पक्षपातपूर्ण निर्णय,पैसे लेकर वोट देना,वोट के लिए पैसा और शराब आदि बांटना,पैसे लेकर रिपोर्ट छापना,अपने कार्यों को करवाने के लिए नकद राशि देना यह सब भ्रष्ट्राचार ही है।बताना लाजमी होगा कि छुरा विकासखण्ड के अंतर्गत बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण छुरा जनपद के अंतर्गत अनुसुचित जनजाति(आदिवासी) सरपंच पद के लिए शासन के द्वारा आरक्षित हुआ है।छुरा विकासखण्ड में समस्त ग्राम पंचायत के सरपंच अनुसुचित जनजाति के है।जिसमें से ग्राम पंचायत जरगांव के पूर्व सरपंच बाबूलाल धुव्र एवं वर्तमान सरपंच श्रीमती नीलम ध्रुव से एसडीएम द्वारा पंचायत जरगांव में वसूली करने के संबंध में पूर्व एवं वर्तमान सरपंच को वसूली करने के संबंध में दबाव बनाया जा रहा है। वसूली करने के लिए प्रताड़ित किया जा रहा है जबकि ग्राम पंचायत जरगांव के शिकायत के आधार पर उपरोक्त कार्य का निर्माण कराया जा चुका है। जिसका बैठक कार्यवाही निर्माण विकास पंजी एवं प्रमाणक सत्यप्रतिलिपि सहित निर्माण कार्य का फोटोग्राफस सहित एसडीएम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है। फिर भी एसडीएम द्वारा कार्य हेतु जोर जबरदस्ती करके आपको राशि जमा करना ही पड़ेगा यहा कहकर वर्तमान सरपंच जरगांव को प्रताड़ित किया जा रहा है और मानसिक दबाव बनाया जा रहा है, इसी बात को लेकर वर्तमान सरपंच श्रीमती नीलम ध्रुव न्यायालय के समक्ष दिनांक 06.05.2022 को बेहोश होकर गिर पड़ी थी जिन्हें उपचार हेतु तत्काल छुरा हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा था।वंही छुरा क्षेत्र के सरपंचो ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि वित्तीय जांच और मनरेगा के सामाजिक अंकेक्षण की रिकवरी नही निकालने के एवज में सीतल बंसल एसडीएम छुरा द्वारा किसी से 40 हजार तो किसी सरपंच से 10 हजार रुपए की रिश्वत ले चुकी हैं।और जो सरपंच इन्हें पैसा देने से इनकार कर चुके हैं उन्हें पेशी के बहाने बुलाकर जेल भेजने की धमकी दी जा रही हैं।और पेशी में बुलाकर दिनभर खड़ा कर मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा हैं जिससे हम बहुत दुखी हो चुके हैं।
सारे दस्तावेज और सबूत के साथ मेरे द्वारा एसडीएम न्यायालय में जबाब प्रस्तुत किया जा चुका हैं:नीलम ध्रुव
श्रीमती नीलम ध्रुव सरपंच जरगांव ने कहा कि अनुविभागीय अधिकारी के कार्यालय का पत्र क्र.398/अ.वि.अ./वा./2022 छुरा दिनांक 14.03.2022 के
संदर्भित पत्र के परिपालन में लेख था कि कार्यालय जिला पंचायत गरियाबंद के पत्र क्र.6033/पंचायत/शिकायत शाखा /2021.22 /गरियाबंद दिनांक 11.02.2022 के अनुसार ग्राम पंचायत जरगांव के वित्तीय जांच के संबंध में पत्र प्राप्त हुआ था। प्रस्तुत जांच प्रतिवेदन के अनुसार छत्तीसगढ़ पंचायत राज अधिनियम 1993 की धारा के तहत पूर्व संरपच बाबूलाल ध्रुव एवं सचिव सतानंद ठाकुर से कुल 512000 रू.पूर्व सरपंच बाबूलाल ध्रुव एवं वर्तमान सचिव रामचंद ध्रुव से 10,000. रू.तथा वर्तमान सरपंच श्रीमती नीलम ध्रुव एवं सचिव रामचंद ध्रुव से कुल 8110110 रू.वसूली किये जाने हेतु अनुशंसा प्राप्त हुआ था। जिसके संबंध में मेरा कथन पुर्व में जांच प्रतिवेदन के अनुसार माननीय न्यायालय अनुविभागी अधिकारी राजस्व गरियाबंद के कारण बताओ नोटिस के संबंध में मेरा जवाब दिनांक12.04.2022 को स्वयं उपस्थित होकर वसूली योग्य राशि के संबंध में ग्राम पंचायत का प्रस्ताव एवं निर्माण विकास समिति की अनुशंसा के आधार पर उक्त राशि भुगतान के संबंध में मेरे एवं सचिव के उपर प्रमाणक प्रस्तुत नही किया जाना के संबंध में नोटिस जारी किया गया था। उसका जवाब मेरे द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका है जिसके संबंध में सरपंच एवं सचिव के उपर वसूली योग्य कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है।जो कि पूरी तरह बेबुनियाद है।श्रीमती नीलम ध्रुव ने आगे कहा कि पूर्व सरपंच बाबूलाल ध्रुव एवं पूर्व सचिव सतानंद ठाकुर से दिनांक 11.02.2019 का मूलभुत मद से 37000 रू. दिनांक 11.02.2019 को मुलभुत मद से 150000 रू. एवं दिनांक 03.05.2018 को 14 वें वित्त मद से 70000 रू. एवं 11.02.2019 को 14 वें वित्त मद से 45000 रू.दिनांक 04.05.2018 को मूलभुत मद से 33000 रू. तथा 03.05.2018 को मूलभुत मद से 45000 रू. भुगतान किया गया है। इस प्रकार कुल राशि 380000 रू. वूसली योग्य निकाला गया है।जबकिं उस समय सचिव ग्राम पंचायत जरगांव में भीषम कोशले पदस्थ था ना की सतानंद ठाकुर था। उक्त राशि के संबंध में ग्राम पंचायत के प्रस्तावित जी.पी.डी.पी योजना के तहत कार्य को अनमोदन कराकर बैठक कार्यवाही के प्रस्ताव क.-01 ,दिनांक -15.02.2019 / एवं प्र.क.-01 में दिनांक -23.04. 2018 के अनुसार वेंडर को संबंधित कार्य की राशि भुगतान किया गया है।जिसकी बैठक कार्यवाही की सत्यप्रतिलिपि संलग्न कर मेरे द्वारा अनुविभागीय अधिकारी को प्रस्तुत की जा चुकी है।क्योंकि उक्त राशि का वूसली योग्य नही है।साथ ही सेनेटाईजर एवं मास्क भुगतान हेतु भुगतान की गई कुल राशि 100000 रू.सरपंच नीलम ध्रुव एवं सचिव रामचंद ध्रुव के वसूली के संबंध में ग्राम पंचायत के प्रस्ताव क.-03,दिनांक. 01.06.2020 के तहत मासिक बैठक कार्यवाही में अनमोदन कराकर भुगतान किया गया है। बैठक कार्यवाही की सत्यप्रतिलिपि संलग्न है।साथ ही ग्राम पंचायत जरगांव के आश्रित ग्राम रवेली वर्ष 2016.17 में स्वच्छ भारत मिशन के तहत 11 व्यक्तिगत शौचालय निर्माण की राशि 132000 रू.पूर्व सरपंच बाबूलाल ध्रुव एवं सचिव सतानंद ठाकुर के वसूली के योग्य दर्शाया गया है।जो कि 11 व्यक्तिगत शौचालय हितग्राहीयों का पूर्ण किया जा चुका है।
साथ ही ग्राम पंचायत जरगांव के आश्रित ग्राम रवेली में नलजल सामग्री हेतु 115710 रू. 14 वें वित्त मद से जी.पी.डी कार्य योजना के तहत पेयजल व्यवस्था हेतु प्रस्तावित किया गया था। और उक्त कार्य में कार्य की स्थिति की अनुसार ग्राम पंचायत के प्रस्ताव क.01 में दिनांक.03.08.2019 के तहत .115710 रू.राशि का भुगतान नगद आहरण कर भुगतान किया गया था। और भुगतान के उपरान्त रोकड़ पंजी में प्रमाणक के अनुसार दर्ज किया गया था। जिसमें 115710 रू. का किसी प्रकार से काई वित्तीय अनियमितिता नही किया गया था
इतना ही नही ग्राम पंचायत जरगांव में बाउंड्री निर्माण हेतु 200000 रू.प्रशासकीय स्वीकृति किया गया था जो कि तकनीकि प्राक्कलन के अनुसार ही उक्त भवन का निर्माण कराया गया था तथा मूल्यांकन के तहत 128000 रू.व्यय होना पाया गया था ।और उक्त कार्य को तकनीकी मार्गदर्शन के अनुसार ही उक्त बाउंड्री का निर्माण कराया गया है जिसमें बाउंड्री वाल का तकनीकी स्वीकृति के संबंधी सारे दस्तावेज मौजूद हैं।साथ ही जनपद पंचायत विकास निधि से ग्राम पंचायत जरगांव के आश्रित रवेली में गली कांकीटीकरण वार्ड 07 में 200000 रू. 14वें वित्त की मद से प्रशासकीय स्वीकृति दिया गया था जिसके तहत उक्त कार्य को 200000 रू. में पूर्ण कर लिया गया एवं ग्राम पंचायत के प्र.क 01/02 दिनांक.30.07.2019 के तहत 50000 रू.रवि साहू घर से देवनाथ घर तक एवं 50000 रू. देवनाथ घर से मेन रोड तक के ग्राम पंचायत का प्रशासकीय स्वीकृति लिया गया था जिसमें 99900 रू.ग्राम पंचायत के प्र. क.01/02 दिनांक.20.07.2019 के तहत नगद राशि आहरण कर संबंधित वेंडर को भुगतान किया गया था और ग्राम पंचायत जरगांव मूलभुत कार्य हेतु अनुदान मद से 2 निर्माण कार्य हेतु 204000 रू.नगद आहरण कर भुगतान किया गया था जिसके संबंध में कार्य स्थल पर कार्य नही होना पाया गया जबकि उक्त स्थल पर वर्ष 2019 में स्वास्थ्य एवं स्वच्छता योजना के तहत 14 वें वित्त जी.पी.डी.पी कार्य योजना के तहत ग्राम पंचायत के प्रस्ताव क 10/06 दिनांक. 30.07.2019 के तहत उक्त कार्य को प्रस्तावित किया गया था एवं ग्राम पंचायत के प्रस्ताव क.10/06 दिनांक.30.07. 2019 के तहत खाता से नगद राशि आहरण कर वेंडर को भुगतान किया गया था। श्रीमती नीलम ध्रुव ने आगे बताया कि इस प्रकार मेरे द्वारा कारण बताओ नोटिस का जबाब माननीय न्यायालय के समक्ष सारे दस्तावेज सहित उपस्थित होकर प्रस्तुत किया गया हैं किंतु एसडीएम श्रीमती सीतल बंसल द्वारा मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा हैं और जेल भेजने की बार-बार धमकी दी जा रही थी उस दिन मुझे जमानती वारेंट के नाम से पेशी में बुलाया गया था और एसडीएम मेडम द्वारा मुझे आज ही रिकवरी का पैसा जमा करने दबाव बनाया गया एक बार नही बार बार मुझे कटघरे में खड़ा कर बहुत अपमानित भी किया गया था और सुबह जेल भेजने की भी बात एसडीएम मेडम द्वारा बार-बार कही गई जैसे कि मैं एक चोर हूँ? मेडम द्वारा इस तरह का व्यवहार किया गया हैं जैसे कि वो कोई सेठ साहूकार हो और उनका में कर्ज खाई हूं।उनका ऐसा व्यवहार देख मेरे सीने में बहुत जोर से दर्द होने लगा फिर में कटघरे में ही गिर गई फिर किया हुआ मुझे कुछ याद नही हैं।
क्या कहते हैं एसडीएम
इस सम्बंध में श्रीमती सीतल बंसल अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व)छुरा से चर्चा करने पर उन्होंने कहा कि जिला पंचायत गरियाबंद की जांच रिपोर्ट के आधार पर बसुली की कार्यवाही की जा रही हैं मेरे द्वारा पैसों की मांग नही की गई हैं।आरोप बेबुनियाद हैं अगर किसी से पैसे की मांग की गई हैं तो वो सबूत प्रस्तुत करें आरोप तो कोई भी लगा सकता हैं?
छ:वर्ष बाद हुआ बिना ग्राम सभा के मनरेगा कार्यो का सामाजिक अंकेक्षण,अदक्षो ने निकाली रिकवरी तो एसडीएम का बना अबैध वसूली का जरिया
गौरतलब हो कि भारत के 73वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ग्रामीण इलाकों में पंचायती राज व्यवस्था सुदृढ़ करने का प्रावधान किया गया,ताकि विकेन्द्रित नियोजन प्रणाली के माध्यम से ग्रामीण विकास किया जा सके। इस उद्देश्य से केन्द्र सरकार द्वारा 2 फरवरी, 2006 में देश के चुने हुए 200 अति पिछड़े जनपदों में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना लागू की गई।द्वितीय चरण में देश के 330 अन्य जनपदों को भी योजना में सम्मिलित किया गया तथा 1 अप्रैल, 2008 से रोजगार गारण्टी योजना को पूरे देश में चलाया जा रहा है जिसे 2 अक्तूबर, 2009 से केन्द्र सरकार द्वारा नाम संशोधित करके राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (नरेगा) से महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) कर दिया गया है।योजना के प्रभावी क्रियान्यवन और भ्रष्ट्राचार से मुक्त रखने के लिए योजना में जन जागरुकता,जन सुनवाई, सामाजिक अंकेक्षण तथा सूचना के अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत निर्माण के सन्दर्भ में समस्त जानकारियाँ लेते रहने का प्रावधान किया गया है।किन्तु गरियाबंद जिला अन्तर्गत जनपद पंचायत छुरा में मनरेगा के तहत वर्ष 2015-16 से वर्ष 2019-20 के अन्तर्गत किए गए कार्यो में सामाजिक अंकेक्षणकर्ता की टीम के सदस्य अदक्ष सामाजिक अंकेक्षणकर्ताओं द्वारा छुरा क्षेत्र की पंचायतों में करोड़ो रूपये की बसूली निकाल दी हैं जिससे सरपंच और सचिवों कर चिंता व सोच का विषय बना हुआ हैं।तो वंही छुरा की एसडीएम का अबैध बसुली का जरिया बन गया हैं।
कौन करता हैं सोशल ऑडिट(सामाजिक अंकेक्षण) क्या हैं?
सामाजिक लेखा-परीक्षा नियमावली योजना 2011 की धारा -4 में निर्धारित हैं कि राज्य सरकार एमजीएनआरआईजीएस कार्यो की सामाजिक लेखा -परीक्षा कराने को सरल बनाने के लिये सामाजिक लेखा परीक्षा इकाई(एस ए यू) का निर्धारण या उसकी स्थापना करेगी या सामाजिक लेखा परीक्षा इकाई कार्यन्वयन विभागों/एजेंसियों से स्वतंत्र सोसाइटी अथवा निदेशालय हो सकता है सांथ ही सोसाइटी/निदेशालय का निदेशक /मुख्य कार्यकारी अधिकारी वह व्यक्ति होना चाहिये जिसने पिछले 15 वर्षों से लोगो के अधिकारों के लिए सामाजिक क्षेत्र कार्य किया हो।कार्य किसी बाहरी एजेंसी को भी सौंपा जा सकता हैं जैसा कि एक एनजीओ जो योजना के नियोजन था क्रियान्वयन में शामिल ना हो पर उसके पास अधिकार तथा अधिकारिता आधारित कार्यक्रमों का पर्याप्त अनुभव हो।
सामाजिक लेखा परीक्षा प्रक्रिया में नही हुआ मनरेगा अधिनियम का पालन
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 की धारा 17 के पैरा 13.3.1 में स्पष्ट उल्लेख हैं कि सामाजिक लेखा-परीक्षा यूनिट वर्ष की शुरुआत में प्रत्येक ग्राम पंचायत में छः माह में कम से कम एक सामाजिक लेखा-परीक्षा कराने के लिए वार्षिक कलेंडर बनाएगी और आवश्यक व्यवस्थाएं करने के लिए सभी जिला कार्यक्रम समन्वयक (डीपीसी)को कलेंडर की एक प्रति भेजेगा, राज्य में भिन्न -भिन्न समय पर सामाजिक लेखा -परीक्षा कराई जायेगी किन्तु छुरा ही नही पूरे गरियाबंद के पांचो जनपद पंचायत क्षेत्र अन्तगर्त नियमो को अभेलना कर वर्षो बाद सामाजिक लेखा परीक्षा किया गया और मनमाने तरीके से सरपंचो व सचिवों पर रिकवरी निकाला गया।जो अब एसडीएम सीतल बंसल का बसुली का गोरखधंधा धंधा बनगया हैं।
नही हुआ था मनरेगा के कार्यो में सामाजिक लेखा परीक्षा के नियमों का पालन और निकल दी गई रिकवरी
गौरतलब हो कि मनरेगा अधिनियम के पैरा 13.1.1के अनुसार महात्मा गांधी नरेगा की रचनात्मक बात यहा है कि इसमें अनवरत सार्वजनिक सतर्कता(महात्मा गांधी नरेगा,धारा-17) साधनों के रूप संस्थागत सामाजिक लेखा परीक्षा हैं।जिसमे कहा गया हैं कि सामाजिक लेखा परीक्षा अवनरत चल रही प्रक्रिया के रूप में जिसमे सार्वजनिक सतर्कता तथा कार्यान्वयन की विभिन्न अवस्थाओं मे कार्यो की मात्रा तथा गुणवत्ता का सत्यापन शामिल हैं और छ:माह में कम से कम एक बार प्रत्येक ग्राम पंचायत(जीपी) में सामाजिक लेखा परीक्षा की प्रक्रिया आयोजन की जानी होती हैं जिसमे सभी पहलुओं की अनिवार्य समीक्षा शामिल है।किन्तु विकास खण्ड छुरा में वर्ष 2015-16 से वर्ष 2019-20 का सामाजिक अंकेक्षण कर सरपंचो व सचिवों को परेशान किया जा रहा हैं।
नही बुलाई गई ग्राम सभा और यूनिट ने निकाल दिया रिकवरी
मनरेगा अधिनियम के पैर13.3.3 उल्लेख है कि सामाजिक लेखा-परीक्षा यूनिट को सामाजिक लेखा ग्राम सभा की बैठक की तारीख के 15 दिन पहले कार्यक्रमअधिकारी (पीओ) द्वारा सभी कार्यान्वयन एजेंसियों की अपेक्षित जानकारी तथा रिकार्ड जैसे जॉब कार्ड रजिस्टररोजगार रजिस्टर, कार्य-रजिस्टर, ग्राम सभा संकल्प, स्वीकृतियों (प्रशासनिक या तकनीकी या वित्तीय) की प्रतियां, कार्य अनुमान, कार्य आरंभ आदेश, मस्टर रोल निर्गम और प्राप्ति रजिस्टर,मस्टर रोल. मजदुरी भगतान जानकारी।
सामग्रियां-बिल तथा वाउचर (प्रत्येक कार्य हेतु) मापन पस्तिकाएं (प्रत्येक कार्य हेत), परिसंपत्ति रजिस्टर पिछल।
सामाजिक लेखा-परीक्षाओं पर की गई कार्रवाई रिपोर्ट, शिकायत रजिस्टर,कोई अन्य दस्तावेज उपलब्ध कराए जाए।
ताकि सामाजिक लेखा-परीक्षा सही ढंग से कराई जा सके।किन्तु जनपद पंचायत छुरा की पंचायतों में सामाजिक अंकेक्षण टीम द्वारा ग्राम सभा का आयोजन नही करवाया गया ना ही सचिवों की इसकी जानकारी दी गई अंकेक्षणकर्ताओं द्वारा अपनी मनमर्जी करते हुए रिपोर्ट तैयार कर लाखों रुपए की रिकवरी निकाल दी गई हैं।जबकिं जिस कार्य की कार्य एजेंसी ग्राम पंचायत नही थी बल्कि जिसकी निर्माण एजेंसी कृषि विभाग था उन कार्यो की भी रिकवरी सरपंच सचिव पर निकाल दी गई हैं।
सचिवो को नही पता किस कार्य की निकाली गई हैं रिकवरी
जनपद पंचायत छुरा के ग्राम पंचायतों में वर्ष
2016-17 में सामाजिक अंकेक्षण दल द्वारा अंकेक्षण कार्य किया गया था,जिसमें पंचायत को वसूली का नोटिस दिया जा रहा है,जिसमें वसूली योग्य राशि स्पष्ट नहीं है,राशि का उल्लेख तो किया गया है। लेकिन वसूली किस कार्य का है व किस सरपंच के कार्यकाल हैं या मजदरी है या सामग्री का है।स्पष्ट नहीं किया गया है। ग्राम सभा में इस संबंध में कोई भी जानकारी ग्राम सभा को नही दिया गया है,साथ ही
निकासी बैठक में किस पंचायत से कितनी राशि वसूली की जानी की जानकारी नहीं दी गई है।
विकास खण्ड छुरा के किसी भी सरपंच/ सचिव को इस बात की जानकारी नहीं है, फिर भी वूसली का नोटिस दिया जा रहा है।सचिवों का कहना है कि अगर सामाजिक अंकेक्षण टीम द्वारा ग्राम सभा हुई है तो प्रस्तावित प्रस्ताव का फोटो
कोपी और निकासी बैठक की कार्यवाही का फोटो कापी प्रदान करते हुए पिछले वसूली योग्य राशि का पुनः सामाजिक अंकेक्षण एवं जांच कराया जाय ताकि सही स्थिति स्पष्ट हो सकें।
सरपंच बोले,हमें किया जा रहा बदनाम अब मनरेगा के काम से करेंगे तौबा
लेख राज धुर्वा सरपंच संघ अध्यक्ष जनपद पंचायत छुरा ने ग्राम पंचायतों में सोशल ऑडिट यूनिट द्वारा किए गए सामाजिक अंकेक्षण को सामाजिक अंकेक्षण के बहाने सरपंचों को बदनाम करने की कोशिश निरूपित करते हुए इसका पुरजोर विरोध किया है। सांथ ही अन्य सरपंचों का कहना है कि मनरेगा का काम नही करेंगे सरपंचों ने जनपद के मुख्य कार्यपालन अधिकारी के माध्यम से जिला पंचायत के सीईओ को पत्र प्रेषित कर उचित कार्रवाई का आग्रह किया जाएगा तथा नहीं तो पंचायतों द्वारा मनरेगा के कार्य नहीं करने की चेतावनी दी है।
वंही सरपंचों का कहना है कि सोशल ऑडिट में को भी दक्ष अधिकारी नही होता हैं।जबकि मनरेगा के कार्यो का भुगतान से पूर्व तकनीकी सहायक एवम उपयंत्री द्वारा मूल्यांकन किया जाता हैं चूंकि ये लोग इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत ही लोक सेवक बनते हैं एक दक्ष व्यक्ति की योग्यता को सामाजिक अंकेक्षणकर्ता जैसा एनजीओ के व्यक्ति कैसे उंगली उठा सकता हैं क्या छुरा जनपद पंचायत क्षेत्र के अधिकारी व तकनीकी सहायक सभी अदक्ष हैं?क्या छुरा क्षेत्र मनरेगा काम नही हुआ सिर्फ लूट होती?सामाजिक अंकेक्षणकर्ता द्वारा सरपंचों की ही नही सभी अधिकारियों को भी बदनाम किया गया हैं।सरपंच संघ अध्यक्ष श्री धुर्वा ने बताया कि जनपद पंचायत छुरा क्षेत्र की ग्राम पंचायतों में मनरेगा के सामाजिक अंकेक्षण,सोशल ऑडिट यूनिट में कोई भी मनरेगा से संबंधित दक्ष तकनीकी अधिकारी व कर्मचारी नहीं थे। ग्राम के ही पढ़े-लिखे युवक-युवतियों को सोशल ऑडिट की तीन दिवसीय प्रशिक्षण देकर ऑडिट कराया जा गया है।
नहीं सुनी गई बात
श्री धुर्वा ने आगे बताया कि ऑडिट दल के द्वारा निर्माण कार्यों के संबंध में सरपंच व सचिवों की बात भी नहीं सुनी गई है एवं ग्राम सभा में ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत न कर दबावपूर्वक कम पढ़े लिखे आदिवासी सरपंचों का हस्ताक्षर लेकर फंसाने की साजिश की गईं है।जबकि हमे किसी तरह की पावती नही दी गई है कब ग्राम सभा किया गया ए भी हमे नही पता है इसका कड़ा विरोध करते हुए सरपंचों ने संबंधित संस्था के विरूद्ध न्यायालयीन कार्रवाई करने तथा भविष्य में मनरेगा के कार्य नहीं करने का मन बना लिया है।श्री धुर्वा ने आगे कहा कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं सीमान्त कृषकों,खेतिहर मजदूरों तथा अन्य श्रमिकों,शिल्पियों व विभिन्न सेवाएँ देने वाले परिवारों का बाहुल्य है। इनमें से अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर जैसे-तैसे अपना पेट पालने वाले हैं।बढ़ती हुई ग्रामीण जनसंख्या को रोजगार मुहैया कराने,गरीबी दूर करने,आर्थिक विषमता कम करने एवं बढ़ते शहरीकरण की समस्या का एकमात्र समाधान है गाँवों में रोजगार बढ़ाना।परिवार को अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए रोजगार आवश्यक है। रोजगार से अर्जित धनराशि से ही लोग अपने और अपने परिवार के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएँ जिसमे रोटी,कपड़ा और मकान का प्रबन्ध कर सकते हैं।किसी भी राष्ट्र की समृद्धि का प्रतीक वहाँ के लोगों को उपलब्ध रोजगार के अवसरों से होता है।जिस राष्ट्र के नागरिक जितनी अधिक संख्या में बेरोजगार होंगे वह राष्ट्र उतना ही अधिक समस्याग्रत,बीमार व बेनूर होगा।सार्वजनिक धन के सही उपयोग,टिकाऊ एवं उपयोगी कार्य आदि की जाँच का हक जनता को है।जनता जब चाहे खर्चे का हिसाब एवं कार्यों की गुणवत्ता की जाँच कर सकती है। यही कार्य सामाजिक अंकेक्षण कहलाता है।पूर्व में रोजगार अवसरों के सृजन के लिए केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर अनेक श्रम साध्य कार्यक्रमों की शुरुआत की गई परन्तु गाँवों में बेरोजगारी दूर करने में सफलता नहीं प्राप्त हो सकी।भारत में योजनागत विकास का यह अनुभव रहा है कि यद्यपि समाज के निम्न एवं पिछड़े वर्ग की विकास के मुख्यधारा से जोड़ने का अवसर सुलभ कराया गया था किन्तु अशिक्षा गरीबी एवं पिछड़ेपन के कारण वह न तो विकास प्रक्रिया को समझ सका न ही उसका लाभ ले सका।सम्पन्न वर्ग के द्वारा सदैव यह प्रयास किया गया कि पिछड़े को पिछड़ा बनाए रखा जाए।नौकरशाहों ने भी इसी वर्ग का साथ दिया। विभिन्न योजनाओं तथा कार्यक्रमों के अन्तर्गत प्रचार-प्रसार प्राविधानित व्यवस्था का सदुपयोग नहीं किया गया। परिणामतः विकास कार्यों में जनसहभागिता नहीं हो सकी।
त्वरित टिप्पणी
भारतीय कानूनी व्यवस्था में भ्रष्ट्राचार
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार को एक बड़ी बुराई माना जाता है। यह ऐसे मुद्दे हैं जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। यह एक कारण है कि हमारे देश में काला धन इतना प्रचलित है।भ्रष्ट्राचार ने न केवल आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया बल्कि देश के विकास को प्रभावित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा 2005 में किए गए एक अध्ययन में यह दर्ज किया गया कि 62% से अधिक भारतीयों ने किसी न किसी समय किसी सरकारी अधिकारी को नौकरी दिलाने के लिए रिश्वत दी थी।
2008 में,एक अन्य रिपोर्ट से पता चला कि लगभग 50% भारतीयों को रिश्वत देने या सार्वजनिक कार्यालयों द्वारा सेवाओं को प्राप्त करने के लिए संपर्कों का उपयोग करने का पहला अनुभव था, हालांकि,2019 में उनके भ्रष्ट्राचार धारणा सूचकांक ने देश को 180 में से 80 वां स्थान दिया।लोगों में भ्रष्ट्राचार की धारणा में लगातार गिरावट को दर्शाता है।
भारतीय कानून व्यवस्था में भी भ्रष्ट्राचार देखा जाता है।मामला दर्ज करने से लेकर मामले पर निर्णय लेने तक हर स्तर पर भ्रष्ट्राचार के गहरे रास्ते हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2013 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सर्वेक्षण किए गए 45 प्रतिशत परिवारों ने न्यायपालिका को भ्रष्ट या अत्यंत भ्रष्ट माना और 2012 में न्यायपालिका से संपर्क करने वाले 36 प्रतिशत परिवारों ने रिश्वत देने की सूचना दी।
भ्रष्ट्राचार के कारण लोगों का न्याय देने वाली व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया। ताजा आंकड़ों (नवंबर 2019) के अनुसार उच्चतम न्यायालय में 59,867 मामले, उच्च न्यायालयों में 44.75 लाख मामले और जिला एवं अधीनस्थ स्तर पर 3.14 करोड़ मामले लंबित हैं।
पसंद की अगली सुनवाई की तारीख प्राप्त करने और आदेश की एक प्रति प्राप्त करने के लिए रिश्वत की मांग के साथ न्यायपालिका में भ्रष्ट्राचार बढ़ गया है। पूरे भारत में एक वर्ष में भुगतान की गई कुल रिश्वत की राशि 534 करोड़ रुपये है, सीएमएस (इंडिया करप्शन स्टडी, 2018) का कहना है कि
एक अनुमान (13 राज्यों की अदालतों से डेटा संग्रह) से पता चलता है कि सुनवाई के लिए उपयुक्त तारीख पाने के लिए 220 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था और आदेश की एक प्रति प्राप्त करने के लिए 314 रुपये रिश्वत के रूप में दिए गए थे। न्यायिक क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मुख्य कारणों में से एक भारतीय अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामले हैं।
भारतीय कानूनी प्रणाली में भ्रष्ट्राचार में गलत प्रभाव के सभी चरण शामिल हैं जो कानूनी प्रणाली को निष्पक्ष रूप से नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस प्रणाली में गलत प्रभाव डालने वाले वकील, प्रशासनिक कर्मचारी आदि हो सकते हैं।भ्रष्ट्राचार न केवल न्यायाधीशों और अदालत के उपयोगकर्ताओं के बीच संबंधों का मामला है,बल्कि आंतरिक न्यायपालिका में भी है,उदाहरण के लिए उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश को बुला सकता है और कर सकता है इतना ही नहीं एक ही अदालत के न्यायाधीश किसी विशेष पक्ष के पक्ष में निर्णय देने के लिए एक-दूसरे को प्रभावित भी कर सकते हैं। हालांकि,यह आवश्यक नहीं है कि लाभ सामग्री के रूप में हो, यहां तक कि यह पेशेवर पक्ष, राजनीतिक पक्ष या यौन पक्ष के रूप में भी हो सकता है।
न्यायपालिका ने हर स्तर पर भ्रष्ट्राचार को अपनी चपेट में ले लिया है और हर कोई इस तथ्य को मानने लगा है कि अब वादियों ने अपने मन में यह साफ कर दिया है कि जब भी वे अदालत में जाते हैं, तो उन्हें छोटी से छोटी मदद के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। भ्रष्ट्राचार बहुत लंबे समय से हमारे समाज का हिस्सा रहा है लेकिन यह कानूनी व्यवस्था में बहुत तेज गति से फैल रहा है। प्राथमिकी दर्ज करने के लिए पुलिस स्टेशन जाने वाले व्यक्ति से भी रिपोर्ट दर्ज करने के लिए कुछ राशि का भुगतान करने की अपेक्षा की जाती है।इस क्षेत्र में भ्रष्ट्राचार के कुछ प्रमुख कारण हमारे देश में न्यायिक अधिकारियों की कमी के कारण न्याय में देरी है,कानूनों का खराब कार्यान्वयन यानी भ्रष्ट्राचार से संबंधित कानून बहुत सख्त नहीं हैं और इस अपराध के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की जाती है, लोगों के पास कोई निवारण तंत्र नहीं है रिश्वत देने के अलावा। यह भी ज्ञात है कि विधायिका, मंत्रियों और नौकरशाहों के कार्यों को उनके कार्यों के लिए जाँचने के लिए कोई तंत्र नहीं है जो भ्रष्ट्राचार के निरंतर प्रसार का एक प्रमुख कारण है। न्यायाधीशों को उनके पक्षपातपूर्ण और आंशिक कृत्यों का कोई डर नहीं है और उनके निर्णयों के लिए कोई जवाबदेही नहीं है,न्यायाधीशों की विवेकाधीन शक्ति हमारे देश में भ्रष्ट्राचार को बढ़ाती है।काम की अधिकता के कारण उन्हें परेशान किया जाता है और वे यह भी सोचते हैं कि उन्हें कम वेतन मिलता है।छोटे-छोटे मामले होते हैं और कुछ मामलों में,वकील निर्णय के बजाय देरी में रुचि रखते हैं।एक वरिष्ठ सत्र न्यायाधीश ने एक बार कहा था कि एक न्यायाधीश,जमानत की लंबी सूची की एक सुबह के बाद, गवाहों को कैसे सुन सकता है, अन्य पचास मामलों में उनके साक्ष्य दर्ज कर सकता है। भ्रष्ट्राचार बढ़ाने के लिए निर्दोष लोग भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वे हमेशा अपने पक्ष में निर्णय लेने के लिए रिश्वत देने में रुचि रखते हैं। न्याय में देरी से अपराधी को गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने और गवाहों को रिश्वत देकर सबूतों को नष्ट करने के लिए पर्याप्त समय मिल सकता है।
बिना किसी उचित कारण के न्याय में देरी न्यायपालिका के सभी कार्यों को बाधित करती है और आगे अन्याय की ओर ले जाती है। अप्रभावी कार्रवाई, धीमी गति से परीक्षण,अनुचित जांच और पुराने कानून,कानूनों के कार्यान्वयन की कमी और अदालतों की जटिल प्रक्रिया भारतीय कानूनी प्रणाली में बढ़ते भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण है।
व्यक्तिगत लाभ के लिए सौंपी गई शक्ति का दुरुपयोग भ्रष्टाचार है।
भारतीय कानूनी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की उपस्थिति में नागरिक न तो अदालतों में समान पहुंच के अपने लोकतांत्रिक अधिकार को वहन करते हैं और न ही अदालत उनके साथ समान व्यवहार करती है। मामलों की योग्यता और लागू कानून भ्रष्ट न्यायाधीशों के लिए सर्वोपरि नहीं हैं।
भारतीय कानूनी व्यवस्था में भ्रष्ट्राचार के कारण
भारतीय अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं। देश में लंबित मामलों की संख्या लाखों में है और निर्णय में 20 साल लग सकते हैं।न्यायिक प्रणाली महंगी,विलंबित और देश के गरीब लोगों और आम नागरिकों की पहुंच से बाहर हो गई है। मामलों के विलंबित परिणामों,आंशिक और पक्षपातपूर्ण फैसलों के कारण जनता का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ रहा है। अदालत की कार्यवाही आम आदमी की समझ से बाहर है जिसके कारण बेईमान वकील आम आदमी का फायदा उठाते हैं और उनसे पैसा कमाते हैं। न्यायाधीश कुछ मामलों में व्यक्तिगत लाभ के लिए विनिमय की पेशकश करते हैं। राजस्थान में, एक न्यायाधीश की रिपोर्ट थी जिसने एक वादी से यौन अनुग्रह के बदले न्यायिक पक्ष की पेशकश की थी। इनमें से कुछ उदाहरण मीडिया द्वारा रिपोर्ट किए गए हैं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है। एक न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती है और CJI की पूर्व सहमति के बिना आपराधिक जांच शुरू नहीं की जा सकती है। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के नियुक्त न्यायाधीश को उनके पद से जटिल महाभियोग प्रक्रिया द्वारा अपेक्षित पद से नहीं हटाया जा सकता है। 1990 के दशक के मामले में, न्यायमूर्ति वी रामास्वामी, जब कांग्रेस सत्ता में थी, न्यायमूर्ति वी रामास्वामी पर महाभियोग चलाने का प्रस्ताव संसद द्वारा पारित नहीं किया जा सका क्योंकि संसद के कांग्रेस सदस्यों ने मतदान से परहेज किया। भारत में महाभियोग का कोई अन्य प्रयास नहीं किया गया है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 124(4) यह स्पष्ट करता है कि सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि संसद के प्रत्येक सदन द्वारा कुल सदस्यता के बहुमत द्वारा समर्थित एक अभिभाषण के बाद पारित राष्ट्रपति का आदेश न हो। साबित कदाचार या अक्षमता के आधार पर इस तरह के निष्कासन के लिए उस सदन की उपस्थिति और मतदान उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने की कार्यवाही न्यायिक प्रकृति की होती है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग के प्रस्ताव पर सदन में मतदान से परहेज को प्रस्ताव के समर्थन में वोट नहीं माना जा सकता है। न्याय में देरी से अपराधी को गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने और गवाहों को रिश्वत देकर सबूतों को नष्ट करने के लिए पर्याप्त समय मिल सकता है। बिना किसी उचित कारण के न्याय में देरी न्यायपालिका के सभी कार्यों को बाधित करती है और आगे अन्याय की ओर ले जाती है।
लोग रिश्वत क्यों देते हैं
न्यायिक व्यवस्था में रिश्वतखोरी आम बात है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल रिपोर्ट 2012 में कहा गया है कि भारत में सामान्य रूप से रिश्वत देने का सबसे आम कारण चीजों को गति देना है।
बड़ी मात्रा में धन सफलता की निश्चितता के बिना मामले के निपटान की आवश्यकता बन जाता है। अदालती प्रक्रिया बहुत महंगी है,यहां तक कि यह गरीब और दबे-कुचले लोगों की पहुंच से भी बाहर है। न्यायपालिका राज्य और केंद्र सरकार के खिलाफ उन मामलों का न्यायनिर्णयन करती है जो भारत के पीड़ित लोगों द्वारा दायर किए जाते हैं। भारत की न्यायिक प्रणाली अब अपने अधिकार क्षेत्र से परे सरकार की नीति में रुकावट के कारण आलोचना का विषय बन गई है। न्यायपालिका की इस रचनात्मकता को न्यायिक सक्रियता कहा जाता है।
भारत में, न्यायाधीशों की संख्या भारत में प्रति दस लाख लोगों पर लगभग 13 या 14 न्यायाधीश हैं।अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को न्यायाधीशों की संख्या मौजूदा 10.5 न्यायाधीशों प्रति मिलियन से बढ़ाकर 50 न्यायाधीश प्रति मिलियन करने का निर्देश दिया। लेकिन यह निर्देश अभी तक बुनियादी ढांचे की कमी के कारण पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है, जिसमें न्यायाधीशों की संख्या और कार्य करने के लिए न्यायाधीशों की सुविधाओं के साथ-साथ प्रांतीय सरकार से सहयोग और धन की कमी शामिल है। बड़ी संख्या में लंबित मामले व्यवस्था का दम घोंट रहे हैं जो बदले में भ्रष्ट प्रथाओं को बढ़ावा देता है।
एशियन लीगल रिसोर्स सेंटर (ALRC) का कहना है कि न्यायपालिका, मामलों के बैकलॉग को संबोधित करने के लिए सरकारी समर्थन की कमी, न्याय देने में असमर्थ है।भारत के लोगों की जागरूकता की कमी भी न्यायपालिका को कार्रवाई करने के लिए मजबूर करती है। सरकारी अधिकारियों के मनमाने फैसले। जैसा कि भारत के लोग अभी भी अदालतों की कमी और न्यायाधीशों की भारी संख्या के बावजूद न्यायपालिका के प्रति सम्मान रखते हैं।न्यायपालिका में बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं। भारतीय धाराओं के अनुसार, 17,945 न्यायाधीशों के पदों में से केवल 14,295 पर ही कब्जा है। इंडिया टुडे ने कहा कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के लगभग 32 प्रतिशत पद रिक्त हैं।
मुकदमों का बकाया, बढ़ती जनसंख्या,भारत की जनता में अपने कानूनी अधिकारों के बारे में कम जागरूकता भी न्याय की विफलता के प्रमुख कारण रहे हैं। इसलिए न्यायपालिका को स्वतंत्र, पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए। यदि मुकदमों के निपटारे में होने वाली देरी को रोकने के लिए कोई तंत्र होगा, तो इससे निश्चित रूप से भारत के वर्गों की नजर में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़ेगा।भारत के गरीब और दबे कुचले लोगों को शीघ्र न्याय दिलाने के लिए न्यायपालिका में उत्साह होना चाहिए। यहां तक कि न्यायपालिका भी भारत के लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
भारतीय कानूनी व्यवस्था में भ्रष्ट्राचार के कुछ मामले
भ्रष्टाचार ने भारत में शासन की पूरी व्यवस्था को नष्ट कर दिया है। इस खतरे से कोई अंग छूटा नहीं है और कानूनी व्यवस्था भी इसका अपवाद नहीं है।
1949 में जस्टिस सिन्हा को न्यायिक कार्यों के अनुचित प्रयोग का दोषी पाया गया,जिसका संचयी प्रभाव उनके कार्यालय की गरिमा को कम करना और न्याय प्रशासन में जनता के विश्वास को कम करना था।1995 में बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एएम भट्टाचार्जी को 1995 में इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था, जब यह पाया गया कि उन्हें अंडरवर्ल्ड के साथ संबंध रखने वाली एक प्रकाशन फर्म से पुस्तक अग्रिम के रूप में 70 लाख प्राप्त हुए थे। 2000 में जस्टिस एएस आनंद
उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपनी स्थिति का उपयोग करके अधीनस्थ न्यायपालिका को अपनी पत्नी और सास के पक्ष में शासन करने के लिए एक मुकदमे में दो दशकों तक सीमित कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट, जब वह भारत के मुख्य न्यायाधीश थे, ने 2000 में उनकी उम्र को लेकर एक विवाद के बाद सीबीआई जांच का निर्देश दिया था। जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था। यह राम जेठमलानी के बिग इगोस,स्मॉल मेन में प्रकाशित स्कैन कॉपी के कारण उत्पन्न हुआ।तीन न्यायाधीश मैसूर सेक्स स्कैंडल: 3 नवंबर, 2002, कर्नाटक उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश, दो महिला अधिवक्ताओं के साथ,कथित तौर पर एक रिसॉर्ट में एक महिला अतिथि के साथ विवाद में शामिल हो गए। पुलिस पहुंची लेकिन कथित तौर पर कार्रवाई नहीं की। न्यायाधीश एनएस वीरभद्रैया,वी. गोपालगौड़ा और चंद्रशेखरैया कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्र सेन हैं उन पर बड़ी मात्रा में धन के दुरुपयोग के आरोप लगाए गए थे, जो उन्हें कलकत्ता के उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर के रूप में उनकी क्षमता में प्राप्त हुआ था। उन्होंने जांच से जुड़े तथ्यों का भी गलत इस्तेमाल किया।उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति निर्मल यादव (पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश) 15 लाख रुपये के नकद-एट-डोर-घोटाले भविष्य निधि घोटाले में आरोपी इतिहास के सबसे बड़े न्यायिक घोटाले में से एक। गाजियाबाद अदालत के 15 से अधिक न्यायाधीशों और उनमें से कुछ उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर रुपये से अधिक के गबन का आरोप है। 7 करोड़।
जस्टिस मेहताब सिंह गिल जून 2009 में पंजाब विजिलेंस ब्यूरो द्वारा जारी टेप में उनका नाम है। फ़ैसले तय करने के लिए भुगतान लेने का आरोप। ये न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के कुछ रिपोर्ट किए गए मामले हैं, इनमें से कई अभी भी रिपोर्ट नहीं किए गए हैं। इसका मुख्य कारण अवमानना की तलवार है, जिसके माध्यम से न्यायपालिका को बिना किसी जवाबदेही के बेलगाम अधिकार प्राप्त है।
भारतीय कानूनी व्यवस्था में भ्रष्ट्राचार का मुकाबला करने के लिए विधायी प्रयास
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (POCA) मुख्य कुहनी लोक सेवकों को उनके आधिकारिक कार्यों के निर्वहन में अवैध तुष्टिकरण स्वीकार करने से रोकना है। सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देने के लिए रिश्वत देने वालों और बिचौलियों को भी POCA के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। POCA के तहत अभियोजन के लिए उच्च अधिकारियों के पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता होती है जो विशेष रूप से सरकारी शाखाओं के भीतर मिलीभगत गतिविधि होने पर इसकी उपयोगिता को गंभीर रूप से सीमित कर देता है।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 यह भ्रष्ट्राचार के खिलाफ लड़ाई में देश की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। सूचना का अधिकार अधिनियम,शक्ति की जाँच करके एक जवाबदेह और पारदर्शी न्यायपालिका के लिए सबसे अच्छा साधन हो सकता है। अधिनियम के प्रावधानों के तहत, कोई भी नागरिक “सार्वजनिक प्राधिकरण” से जानकारी का अनुरोध कर सकता है, जिसे 30 दिनों के भीतर जवाब देना आवश्यक है। अधिनियम में प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण को व्यापक प्रसार के लिए अपने रिकॉर्ड को कम्प्यूटरीकृत करने और आसान नागरिक पहुंच के लिए कुछ श्रेणियों की जानकारी को सक्रिय रूप से प्रकाशित करने की भी आवश्यकता है। यह अधिनियम नागरिकों को सार्वजनिक खर्च को नियंत्रित करने के लिए एक तंत्र प्रदान करता है। भ्रष्ट्राचार का पर्दाफाश करने के लिए कई भ्रष्ट्राचार विरोधी कार्यकर्ता आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे हैं।
न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन: आचार संहिता
कुछ कोड जिनका न्यायाधीशों को पालन करना चाहिए वे हैं
न्यायाधीशों को क्लब, सोसायटी या अन्य संघों के किसी भी कार्यालय का चुनाव नहीं कराना चाहिए
एक न्यायाधीश को किसी ऐसे मामले की सुनवाई और निर्णय नहीं करना चाहिए जिसमें उसके परिवार का कोई सदस्य, कोई करीबी रिश्तेदार या मित्र संबंधित हो।एक न्यायाधीश को शेयरों, शेयरों या इसी तरह के अन्य शेयरों में अटकलें नहीं लगानी चाहिए।न्यायाधीश (जांच) अधिनियम,1968: इस अधिनियम का उद्देश्य उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता की जांच और सबूत के लिए प्रक्रिया को विनियमित करना है।इस उद्देश्य के लिए न्यायाधीश अधिनियम की धारा 3 प्रासंगिक है। यह समिति द्वारा न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता की जांच के लिए प्रक्रिया प्रदान करता है।98वां संविधान संशोधन विधेयक, राष्ट्रीय न्यायिक आयोग,आयोग उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के लिए सिफारिश करेगा, और इस प्रकार,उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए एक संस्थागत तंत्र प्रदान करेगा।
उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए आयोग द्वारा की गई सिफारिश राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगी, और इससे कार्यपालिका और आयोग के बीच घर्षण की संभावना कम होगी। यह आयोग उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता तैयार करेगा। इसे किसी न्यायाधीश के कदाचार और विचलित व्यवहार के मामले में की गई शिकायतों के आधार पर पूछताछ करने का अधिकार होगा। यह आयोग न्यायिक जवाबदेही लाने में मदद करेगा।न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक 2010, यह न्यायाधीशों के लिए आचरण के लागू करने योग्य मानकों को निर्धारित करने का प्रयास करता है। इसमें न्यायाधीशों को उनकी और उनके परिवार के सदस्यों की संपत्ति और देनदारियों का विवरण घोषित करने की भी आवश्यकता होती है।यह विधेयक किसी भी व्यक्ति को न्यायाधीशों के खिलाफ दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर शिकायत करने की अनुमति देने के लिए तंत्र बनाता है।