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दुकान खाली करवाने के लिए मालिक का बेरोजगार होना जरूरी नहींः सुप्रीम कोर्ट

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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि यूपी शहरी भवन (किराया और बेदखली विनियमन) कानून, 1972 की धारा 21(1)(ए) के तहत वास्तविक जरूरत के आधार पर दुकान खाली कराने की मांग करने के लिए मकान मालिक के बेरोजगार होने की आवश्यकता नहीं है। जस्टिस यूयू ललित की पीठ ने कहा कि यह प्रावधान केवल इतना ही कहता है कि मकान मालिक की जरूरत वास्तविक होनी चाहिए। इसमें यह कहीं नहीं कहा गया है कि ये कार्यवाही करने के लिए मकान मालिक का बेरोजगार होना जरूरी है, तब ही वह इस धारा के तहत अर्जी दे सकता है। कोर्ट ने कहा कि तथ्य दर्शाते हैं कि एक दुर्घटना में अपीलकर्ता का एक पैर खराब हो गया था। वह वास्तव में चाहता था कि उसका बेटा कुछ व्यवसाय शुरू करें। दुकान के अलावा उसके पास और कोई संपति नहीं थी।
हाईकोर्ट का फैसला खारिज, अपीलीय अथॉरिटी का आदेश बहाल :
पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए अपीलीय अथॉरिटी के आदेश को बहाल कर दिया और कहा कि हाईकोर्ट का रिट अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अपीलीय अथॉरिटी के तथ्यों की खोज के आदेश से छेड़छाड़ करना उचित नहीं था। पीठ ने दुकान खाली करने के लिए किरायेदार को 31 दिसंबर तक का समय दिया, लेकिन कहा कि वह तीन हफ्ते में कोर्ट में शपथपत्र देंगे कि दुकान को तय समय में खाली कर दिया जाएगा। इस बीच वह किराया नियमित रूप से देते रहेंगे और कोई बकाया नहीं रखेंगे। तीन हफ्ते में शपथपत्र नहीं देने पर दुकान खाली करने का आदेश तुरंत प्रभाव से लागू हो जाएगा।
क्या है मामला
मकान मालिक ने ज्वालापुर (हरिद्वार) में किरायेदार के कब्जे वाली दुकान को खाली कराने की मांग करते हुए एक अर्जी दाखिल की थी, उसके बेटे के लिए काम-धंधा शुरू करने के वास्ते दुकान की आवश्यकता है। किराया प्राधिकारी ने इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। लेकिन अपीलीय अथॉरिटी ने अपील स्वीकार कर ली और किरायेदार को दुकान खाली करने का आदेश दिया। आदेश के खिलाफ किराएदार ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत उत्तराखंड हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने अपीलीय अथॉरिटी के फैसले को पलट दिया और कहा कि मकान मालिक का बेटा जिसके लिए दुकान खाली करने की मांग की गई थी, वह आयकर चुकाता है और और उसकी 1,14,508 रुपया आय प्रति वर्ष है। इसलिए वह बेरोजगार व्यक्ति नहीं था। साथ ही हाईकोर्ट ने पाया कि किराया कानून की धारा 21(1)(ए) के तहत आवेदन को सुनवाई योग्य नहीं माना जा सकता। यह किराया कानून उत्तराखंड में भी लागू है।