वास्तु शास्त्र में ब्रह्म स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, किसी भी भूखण्ड के मध्यभाग को ब्रह्म स्थान या नाभि स्थान कहा जाता है। ब्रह्म स्थान का रहस्य वास्तु शास्त्र के अतिरिक्त दर्शन और आध्यात्म से संबंधित है।
ब्रह्म स्थान का तत्व आकाश है।
संसार का अंतिम तत्व ब्रह्म या परमेश्वर को माना जाता है जो अघन्या, अविनाशी तथा निरपेक्ष है। पाश्चात्य विचारक इसे निरपेक्ष मानते हैं जबकि हिन्दू धम में शंकराचार्य ब्रह्म और आत्मजा को एक ही मानते हैं।
भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ। भूखण्ड का ब्रह्म क्षेत्र इन्हीं पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए होता है, इसीलिए कहा गया है, छत का ब्रह्म क्षेत्र निर्दोष होना चाहिए। वहां किसी भी प्रकार का निर्माण नहीं होना चाहिए।
ब्रह्म स्थान में गंदी, नई-पुरानी, छोटी या बड़ी वस्तु नहीं होनी चाहिए।
ब्रह्म स्थान में बीम, पीढ़ी, छज्जा और यहां तक की छत भी नहीं होना चाहिए। दोपहर को सूर्य की किरणें सीधी आनी चाहिए।
वास्तुशास्त्र कहता है कि नाभिस्थान खुला हुआ, सम्पूर्ण वस्तुओं से रहित न हो तो घर का स्वामी हृदय रोग से पीड़ित रहता है।
ब्रह्म स्थान के खुले होने से परिवार के लोग सुखी व सम्पन्न होते हैं।
ब्रह्म स्थान में ध्यान, जप, प्राणायाम लाभप्रद होते हैं, समाधि की प्रक्रिया सिद्ध होती है।
ब्रह्म स्थान के दोष दूर करने के उपाय –
ब्रह्म स्थान में निष्काम भाव से पूजा करें, ईश्वर की उपासना करें, कुछ मांगे नहीं।
ब्रह्म स्थान के नौ चौखानों के ऊपर एक-एक पिरामिड लगाने से यह दोष कम होता है।
गीता, रामायण आदि धार्मिक ग्रंथों का नियमित पाठ करने से सकारात्मक उर्जा के कारण वास्तु दोष प्रभावहीन रहता है।
ब्रह्म स्थान ठीक कर लेने से ईशान कोण का दोष व्यक्ति को कम प्रथावित करता है।
इस स्थान पर सत्संग, हरिकीर्तन, भजन आदि से यह दोष दूर हो जाता है।
ब्रह्म स्थन को दोष मुक्त रखने से भौतिक जीवन के दोष, कठिनाइयों तथा विरोधाभासों को दूर किया जा सकता है।
प्रसिद्ध वास्तुशास्त्रियों के दिशा-निर्देश अनुसार ब्रह्म स्थान को जानने के लिए किसी भूखण्ड या मकान की लम्बाई को तीन भागों में बांटिए, फिर उसकी चौड़ाई को चार भागों में बांटिए, सारे भागों को रेखाओं के माध्यम से इस तरह से मिलाएं कि वह चौकोर आकार में नजर आने लगे। इस प्रकार नौ वर्ग या आयात (चौभुज) बन जाएंगे। इनमें से सबसे बीचवाला भाग ब्रह्म स्थान होता है।