रायपुर
ईश्वर की पराधीनता से ऊपर कुछ नहीं हैं जिसने ईश्वर की पराधीनता स्वीकार कर ली, उसका जीवन सार्थक हो गया। जिन्होने संसार की पराधीनता स्वीकार कर ली उसका मन सत्संग में लग नहीं सकता। संसारी माया को छोड़कर सत्संग में आ गए ऐसे लोगों पर भगवान की कृपा है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। जीवन में पराधीनता का होना भी आवश्यक है, हम सब प्रकृति के पराधीन हैं। जो व्यक्ति अपने ईष्ट के प्रति कृतज्ञ नहीं हैं वह किसी के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता। जिस दिन अपने स्वार्थ की आलोचना करना सीख लिया उस दिन परिवार व समाज में रामराज्य की तरह खुशियां बिखर जायेंगी। जो आपको अच्छा न लगें वह दूसरों पर न थोपें।
मैक कॉलेज आडिटोरियम में श्रीराम कथा सत्संग में मैथिलीशरण भाई जी ने भरत चरित्र की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रभु श्रीराम जी की तरह भरत जी का स्वभाव भी सरल, शील, उदार व करुणामय है। जैसे श्रीराम धर्मज्ञ हैं वैसे ही भरत जी भी है। संसार का कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिसका मानस में उल्लेख न मिले। आपके अंदर जो भी संदेह या संशय चल रहा है उसका निराकरण मानस में हैं। जिनकों भगवान की चरणों में मति व संसार से विरति हो जाए तो उसे सब कुछ अखंड आनंद परमशांति परमानंद मिल जायेगा। भगवान में संसार व संसार में भगवान देखना दोनों एक ही बात है।
भाई जी ने एक बड़े ही गंभीर विषय को उल्लेखित करते हुए बताया कि विद्या की देवी मां सरस्वती ने चारों हाथों में क्या धारण कर रखा हैं अधिकांश स्कूली बच्चे नहीं बता सकते, इसलिए कि उन्हे बताया ही नहीं गया। सिर्फ यही बताया गया कि विद्या की देवी है इनका पूजन करें। शिक्षा केवल पुस्तकों को पढ़कर ही अर्जित नहीं की जा सकती उसे संगीतमय बनाना पड़ेगा। जैसे सरस्वती जी के दो हाथों में वीणा हैं, एक में स्फर्टिक की माला और एक में पुस्तक। जिससे यह शिक्षा मिलती है कि संगीतमय जीवन की सृष्टि करना है तो कुछ गोटियां कसनी होगी और कुछ ढीली करनी होगी तभी संतुलन बना रहेगा। स्पर्टिक की माला पारदर्शिता को बताती है और पुस्तक पढ़कर ही ज्ञान नहीं पा सकते जीवन में उसे उतारने के लिए अनुभव भी जरूरी है।