रायपुर
छत्तीसगढ़ की कुल आबादी में आदिवासी वोटर्स की संख्या करीब 34 परसेंट है. जाहिर है कि चुनाव में इतना बड़ा समूह सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका में तो होगा ही. मगर, जब से छत्तीसगढ़ राज्य बना है, यहां की राजनीति भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस केंद्रित ही रही. आदिवासियों का वोट कभी बीजेपी को तो कभी कांग्रेस को जाता रहा है.
आदिवासियों के नाम पर बनी कोई पार्टी मुख्य भूमिका में नहीं आ सकी. मगर, इस बार स्टेट में बड़ा उलट फेर होता दिख रहा है.आदिवासियों की बनी एक पार्टी ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों की नींद उड़ा रखी है. चूंकि कांग्रेस पिछली बार आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में शत प्रतिशत (2 सीट छोड़कर) सीट जीतने में सफल हुई थी, इसलिए ज्यादा चिंता कांग्रेस को ही है.
1. आदिवासी वोट 2018 में किसे
छत्तीसगढ़ में कुल विधानसभा सीटों की संख्या 90 है. इस हिसाब से सरकार बनाने के लिए 46 सीटें होनी चाहिए. कुल विधानसभा सीटें में 29 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. मतलब सीधा है कि आदिवासी जिसको चाहे उसको मुख्यमंत्री बनाए. मगर, अभी तक छत्तीसगढ़ में कोई आदिवासी समुदाय का मुख्यमंत्री कैंडिडेट नहीं बना है.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियां अगर जीतती हैं, तो किसी आदिवासी के मुख्यमंत्री बनने की संभावना न के बराबर ही है. साल 2018 के चुनाव परिणाम की बात करें, तो कांग्रेस ने यहां 68 सीटों पर जीत दर्ज की थी. बीजेपी को सिर्फ 18 सीटें मिली थी. वहीं, 29 आदिवासी आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं.
बाद में उपचुनाव होने के चलते कांग्रेस ने एक और आदिवासी रिजर्व सीट जीत ली. सबसे बड़ी बात यह रही कि कांग्रेस ने 30 सीटों पर 50 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल कर जीत दर्ज की थी. कुल मिलाकर 2108 के आंकड़े सीधे-सीधे कांग्रेस के फेवर में दिख रहे हैं. इसलिए आदिवासी वोटों का ध्रुवीकरण किसी आदिवासी पार्टी के लिए होता है, तो सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को होता दिख रहा है.
2. सर्व आदिवासी समाज से क्यों है खतरा
अभी पिछले साल यानी 2022 दिसंबर की ही बात है. प्रदेश के भानुप्रतापपुर में हुए उपचुनाव में मिले वोटों को अगर आधार मानें, तो कांग्रेस और बीजेपी के लिए कई जगहों पर खतरा सर्व आदिवासी समाज की पार्टी हमर राज पार्टी से है.
भानुप्रतापपुर उप चुनाव में ऐन मौके पर हमर राज पार्टी का कैंडिडेट ने पर्चा भरा और बिना किसी तैयारी के 23 हजार वोट पाने में सफल हुआ था. अब करीब 50 सीटों पर हमर राज पार्टी के प्रत्याशी बीजेपी और कांग्रेस के वोट में सेंध लगाने के लिए तैयार हैं. चूंकि कई सीट ऐसी हैं, जहां पर कांग्रेस के जीत का अंतर बहुत कम वोटों का रहा है, वहां तो पार्टी का नुकसान होना तय है.
3. लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली थी शिकस्त
अगर 2018 विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों के वोटिंग ट्रेंड की तुलना करें, तो समझ में आएगा कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी को एंटी इंकंबेंसी से बहुत नुकसान हुआ था. 2018 विधानसभा चुनाव में बंपर वोटों से जीतने वाली कांग्रेस को ठीक अगले साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी.
BJP ने लोकसभा चुनावों में छत्तीसगढ़ में 11 में से 8 सीटें जीत कर साबित कर दिया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता बरकरार है. सबसे खास पहलू यह रहा कि आदिवासियों के लिए सुरक्षित चार सीटों में से तीन पर BJP ने कब्जा जमाया लिया. कांग्रेस को केवल एक सीट पर संतोष करना पड़ा था.
4. नोटा के वोट
साल 2018 के विधानसभा चुनावों में करीब 14 विधानसभा सीटों पर नोटा तीसरे स्थान पर रहा. मतलब इन सीटों पर एक बड़ी संख्या में ऐसे लोग रहे, जिन्हें बीजेपी सरकार से नाराजगी थी. मगर, वे कांग्रेस को वोट नहीं देना चाहते थे. यही कारण है कि इन सीटों पर इस बार एकतरफा मुकाबला नहीं होगा. BJP से कांग्रेस को कड़ी टक्कर मिलने वाली है. इन 14 विधानसभा सीटों नोटा को वोट देने वालों को अगर बीजेपी मना लेती है, तो कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है.
5. रमन सिंह सीएम कैंडिडेट नहीं
बीजेपी के लिए 2018 में आदिवासियों के लिए नाराजगी का सबसे बड़ा कारण रमन सिंह सरकार का सलवा जुडूम कार्यक्रम था. ऐसा कहा गया कि आदिवासियों के बीच इस कार्यक्रम को लेकर बड़ी नाराजगी थी. हालांकि, बाद में कोर्ट ने भी इस कार्यक्रम पर रोक लगा दी.
रमन सिंह के सीएम कैंडिडेट न होने के चलते यह संभव है कि सलवा जुडूम के नाम से नाराज आदिवासी वोटर फिर से बीजेपी के पाले में आ जाएं. इस बीच केंद्र सरकार ने आदिवासियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कई काम किए हैं. बीजेपी राज में देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति भी भारत को मिली है. हो सकता है कि बीजेपी के लिए जो गुस्सा आदिवासियों में 2018 में था, वह कुछ कम हुआ होगा.