जगदलपुर। आदिवासी समाज में प्रकृति को सबसे पहले स्थान दिया गया है। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर उसे सहेज कर रखना आदिवासी समाज के लोगों के संस्कार में शामिल है। पर आज जब आधुनिकता, इंटरनेट के माध्यम से गांव-गांव तक पैर पसार रही है तब गांव में प्राकृतिक जीवन बिता रहे आदिवासियों के लिए खुद की परंपरा और संस्कृति को संरक्षित रख पाना अब एक चुनौती बन गया है। सदिसों से बस्तर अंचल में चर रहे आदिवासियों के सबसे बड़े मनोरंजन के साधन मुर्गा लड़ाई पर भी अब आधुनिक समाज की तरह ज्यादा की चाहत और भौतिक संसाधनों की चाहत ने पारंपरिक मुर्गा लड़ाई में जुआं जैसे असामाजिक खेल को संलिप्त कर दिया है।
बस्तर संभाग में लगभग सभी साप्ताहित बजारों में मुर्गा लड़ाई का खेल सालों से चल रहा है। ग्रामीण अपने मुर्गा को तैयार कर इन बाजारों में लाते है। मुर्गा लड़ाई से पहले इन मुर्गा क पैरों में तेज धारवाला चाकू जिसे स्थानीय भाषा मंे काती कहा जाता है वो बांध दिया जाता है। जिसे बांधने वालों को भी विशेष महारत हासिल होती है। जिन्हें कतियार कहा जाता है. व जिनका आदिवासी समाज में विशेष सम्मान होता है।
साप्ताहिक बाजारों में लगने वाला मुर्गा बाजार किसी समय मनोरंजन के साधन के साथ आसपास के आदिवासी समाज के लोगों के बीच मेल मुलाकात और आपसी जानकारियां साझा करने का एक माध्यम भी हुआ करता था। पर आज गांव-गांव की मोबाइल सुविधा और व्हाट्सअप जैसे साजिक मंच ने इन लोगों के बीच की दूरियां तो कम कर दी पर सामाजिक ताने बाने को उलझा दिया।
आदिवासी समाज के युवा प्रभाग जीवन वट्टी ने कहा कि हमारे समाज में मुर्गा लड़ाई सदियों से पारंपरिक रूप से चलता आ रहा है। समय के साथ बाहरी लोग इस खेल में आने लगे और इनके साथ ही कुछ कुरीतियों भी आइ पर इसके लिए मुर्गा लड़ाई बंद कराना सही नही है। बल्कि प्रशासन को इन मुर्गा लड़ाई में चल रहे जुआं को बंद कराना चाहिए।
गोंडवाना समाज के अध्यक्ष बीरसिंग उसेंडी ने बताया कि मुर्गा लड़ाई के खेल की आड़ में आजकल जुआ खेला जा रहा है जो हमारी परंपरा नहीं है।